दिल्लगी से याद पड़ा, चाहे सामान्य सोचने-समझने की प्रक्रिया हो या फिर चाहे प्यार, गुस्सा, उत्तेजना, घृणा जैसी भावनाओं का उफान हो - दिल का इनसे कुछ लेना-देना नहीं है, यह बिचारा तो मुफ़्त में बदनाम है। इसकी ग़लती बस इतनी ही है कि भावनाओं के उतार-चढ़ाव के साथ इसके धड़कनों की रफ़्तार बढ़ जाती है और वह भी इस दौरान हमारे दिमाग़ में चल रही विद्युत-रासायनिक प्रक्रियाओँ तथा अंत:स्रावी ग्रंथियों से स्रावित हॉरमोन्स के कारण ऐसा होता है। वरना यह बिचारा तो बस 72 बार प्रति मिनट के हिसाब से धड़कते हुए आप की शिराओं एवं धमनियों में निश्चित रफ़्तार से रक्त को दौड़ाते रहने के काम में ही व्यस्त रहता है ताकि आप के शरीर की अरबों-ख़रबों कोशिकाओं को पोषक तत्वों एवं ऑक्सीजन की सतत आपूर्ति बनी रहे।
सोचने-समझने की न तो इसके पास क्षमता है और न ही समय। न. . .न. . .भावनाओं का संबंध दिल से जोड़ने में न तो सामान्य व्यक्ति की ग़लती है और न ही रचनाकारों, विशेषकर साहित्यकारों की। अब जाने-अनजाने यह भ्रम प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू को भी था कि सोचने-समझने से लेकर भावनाओं के उतार-चढ़ाव का काम दिल करता है! और ऐसा सोचने में ग़लत क्या है? आख़िर हम हर समय दिल की धड़कन को ही महसूस कर पाते हैं, दिमाग़ में क्या चल रहा है, इसका तो हमें पता भी नहीं चलता। हद तो यह है कि इस चक्कर में जिगर यानि यकृत यानि लिवर को भी शामिल कर लिया गया। वो है न गाना - 'तुमसे अच्छा कौन है, दिल, जिगर और जान लो. . . या फिर 'तुम मेरे जिगर के टुकड़े हो' आदि! लीजिए मैं भी इस दिल-जिगर के चक्कर में पड़ कर असली मुद्दे से भटक गया था। क्या करूँ, यह दिल कमबख़्त चीज़ ही ऐसी है और इसका मामला भी कोई दिल्लगी वाला नहीं है। तभी तो बड़े-बड़े लोग सदियों से इसी के लेन-देन और जोड़-तोड़ में लगे हुए हैं। तो फिर मैं क्या चीज़ हूँ?
खैर अब वक्त आ गया है कि दिल का मामला यहीं ख़ारिज कर दिमाग़ के बारे में दिमाग़ से सोचा समझा जाए क्यों कि यहीं पर रचना प्रक्रिया की असली प्रक्रिया चलती है। यह मैं नहीं सदियों के अनुसंधान के बाद वैज्ञानिक ऐसा कहते हैं और वह भी सप्रमाण।
हमारी खोपड़ी में अवस्थित, मात्र तीन पौंड के भार वाले इस दिमाग़ या मस्तिष्क की जटिल संरचना को समझना कोई आसान काम नहीं है। इसकी कार्य प्रणाली तो इससे भी जटिल है, संभवत: इस संसार में पाए जाने वाले किसी भी तंत्र से कई गुना जटिल! सच तो यह है कि इतने अनुसंधानों के बाद भी हम इसे पूरी तरह आज तक नहीं समझ पाए हैं और इस झंझट में हमें पड़ना भी नहीं है। कारण, इस काम में इस पत्रिका के सारे पन्ने भी शायद कम पड़ जाएँ। आइए, बस काम भर की बातें जान कर इसकी जटिलता का कुछ अंदाज़ा लगा लें जिससे एक रचनाकार के मस्तिष्क में रचना की प्रक्रिया किस प्रकार चलती है, इसे समझने में ज़्यादा कठिनाई न हो।
जिलैटिन तो पता है न? उसी जैसी सघनता और अखरोट जैसी सूरत-शक्ल वाले इस नरम एवं कोमल अंग के निर्माण में इसके रचनाकार ने सौ करोड़ से भी अधिक विशेष प्रकार की धागेनुमा कोशिकाओं का उपयोग किया है, जिन्हें हम न्युरॉन के नाम से पुकारते हैं। ये न्युरॉन्स बड़े ही संवेदनशील होते हैं। इन्हें विभिन्न प्रकार के उद्दीपकों यथा प्रकाश, ताप, विद्युत, चुंबकीय, यांत्रिक ऊर्जा या फिर नाना प्रकार के रसायनों द्वारा उकसाया जा सकता है। उकसाए जाने पर इन कोशिकाओं में कुछ मिलीवोल्ट की तीव्रता वाली विद्युत तरंगें उत्पन्न होती हैं। इन तरंगों के रूप में सूचना न्युरॉन्स के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँचती है। हमारे मस्तिष्क का प्रत्येक न्युरॉन कम से कम 25000 दूसरे न्युरॉन्स से सिनैप्स द्वारा कार्य रूप से संबद्ध होता है। विद्युत तरंगों के प्रभाव में न्युरॉन का अंतिम सिरा विशेष प्रकार के रसायन का स्राव करते हैं, जिन्हें न्युरोट्रांस्मिटर की संज्ञा दी गई है। एक न्युरॉन एक ही प्रकार का न्युरोट्रांस्मिटर का स्राव करने की क्षमता रखता है। लेकिन अलग-अलग न्युरॉन्स से स्रावित होने वाले न्युरोट्रांस्मिटर अलग-अलग प्रकार के हो सकते हैं। इनका प्रभाव भी अलग-अलग होता है। अब तक कम से कम ऐसे एक या दो नहीं, कम से कम 100 से भी अधिक न्युरोट्रांस्मिटरों का पता लगाया जा चुका है- जैसे एसिटिलकोलीन, एड्रिनलीन, डोपामाइन आदि। ये रसायन छन कर सिनैप्स में आ जाते हैं एवं उन सभी न्युरॉन्स में उसी तीव्रता वाली विद्युत तरंगों का उत्पादन करते हैं जिनसे पहले न्युरॉन का संबंध होता है। इस प्रकार एक न्युरॉन में प्राप्त सूचना को कम से कम 25000 न्युरॉन्स में तो संप्रेषित किया ही जा सकता है।
फिर इन 25000 न्युरॉन्स में से प्रत्येक न्युरॉन अगले 25000 न्युरॉन्स से संबद्ध होता है। हमारे मस्तिष्क के 100 करोड़ से भी अधिक न्युरॉन्स आपस में अरबों-ख़रबों सिनैप्सेज द्वारा मकड़जाल के समान एक दूसरे से जुड़े रहते हैं। इसकी जटिलता इंटरनेट की जटिलता से भी कई गुना अधिक होती है। इसमें न्युरॉन्स के संबंध समय के साथ बदलते भी रहते है। घूम गई न खोपड़ी! लेकिन जनाब अभी कहाँ अंत है इसका? ज़रा दिल थाम कर. . .सॉरी, दिमाग़ खोल कर बैठिए। यह तो झलक भर है। अगर पूरा समझाने बैठूँगा तो बहुतों का दिमाग़ ख़राब हो सकता है। अभी तो बस इतना ही समझ लें कि इस पूरे मकड़जाल में सूचनाओं का संप्रेषण एवं उसका संसाधन बहुत ही जटिल एवं आसानी से न समझ में आने वाली विधा है। फिर भी थोड़ी हिम्मत करिए तो मैं भी इसकी कुछ और झलकियाँ प्रस्तुत करने का साहस करूँ। क्या कहा? थोड़ा सुस्ता लिया जाय? चलिए आप वाली ही सही।
तो आगे की बात यह है कि हमारे मस्तिष्क के निर्माण में प्रयुक्त न्यूरॉन्स के इस मकड़जाल का संबंध स्पाइनल कॉर्ड तथा स्नायुतंतुओं (nerves) द्वारा पूरे शरीर से होता है। मेरुदंड एवं स्नायुतंतुओं का निर्माण भी न्युरॉन्स द्वारा ही होता है। ये स्नायुतंतु हमारी सभी ज्ञानेंद्रियों, मांसपेशियों, ग्रंथियों आदि को मस्तिष्क से जोड़ते हैं और सूचना लेने-देने के काम में लगे रहते हैं। शरीर के बाहर एवं भीतर घटने वाली हर घटना की सूचना इन स्नायुतंतुओं द्वारा मस्तिष्क या मेरुदंड को दी जाती है। यहाँ इन सूचनाओं का संवर्धन (processing) होता है। काफ़ी समझने-बूझने,तर्क-वितर्क, खोज-बीन के बाद समुचित कार्यवाही का निर्णय लिया जाता है, फिर इस निर्णय को कार्यरूप देने के लिए अन्य विशेष स्नायुतंतुओं द्वारा सूचना मांसपेशियों अथवा ग्रंथियों तक प्रेषित कर दी जाती है।
मस्तिष्क में चलने वाली सृजन संबंधी क्रिया-कलापों को अच्छी तरह समझने के लिए आइए, इसके कम से कम इस कार्य से संबधित अवयवों के बारे में तो जान ही लें। वैसे तो इसके सभी अंश एक-दूसरे से न केवल संरचनात्मक, बल्कि कार्य-रूप से भी घनिष्टता पूर्वक जुड़े होते है, अत: इन्हें अलग-अलग कर देखना उचित नहीं है। फिर भी अध्ययन की सुविधा के लिए अग्र, मध्य एवं पश्च भागों में बाँटा जा सकता है।
अग्र भाग का मुख्य हिस्सा सेरिब्रम है, जो स्वयं दाएँ एवं बाएँ हिस्से में बँटा होता है। मस्तिष्क का अधिकांश भाग इसी से बना होता है। इसका आकार-प्रकार ही मस्तिष्क को अखरोटनुमा आकार देता है। इसकी बाहरी सतह लहरदार होती है तथा इन लहरों में कई गहरी दरारें होती है। ये दरारें सेरिब्रम के दोनों हिस्सों को ललाट की तरफ़ अवस्थित फ्रांटल, कान की तरफ़ अवस्थित टेंपोरल, पीछे की तरफ़ अवस्थित ऑक्सीपिटल एवं ऊपर की ओर अवस्थित पेराइटल जैसे भागों में सतही तौर पर बाँटती हैं। इनमें से टेंपोरल, ऑक्सीपिटल एवं पेराइटल, जिन्हें हम इनके पहले अक्षरों को मिला कर 'टॉप' की संज्ञा दे सकते हैं- मुख्य रूप से सूचना संग्रहण, संवर्धन एवं विश्लेषण के कार्य में दक्ष हैं। उदाहरण के लिए - टेंपोरल हिस्से में ध्वनियों को समझा-बूझा जाता है तो ऑक्सीपिटल में दृष्टि संबधी सूचनाओं को एवं पेराइटल में स्पर्श, गर्म, ठंडा, दर्द जैसी सूचनाओं के संग्रहण, संवर्धन एवं विश्लेषण का कार्य होता है।
फ्रांटल हिस्सा थोड़ा अलग और विशिष्ट है- जटिल विचारों की उत्पत्ति एवं उसके फलस्वरूप होने वाली कार्यवाहियों पर आंतरिक दृष्टि रखने से ले कर परिस्थितियों के अवबोधन एवं स्मृतियों को संजो कर रखना तथा उन्हें आवश्यकतानुसार ज्ञान पटल पर लाना इसी के कार्यक्षेत्र में आते हैं। सूचनाओं के संवर्धन के पश्चात लिए गए निर्णयों को मांसपेशियों अथवा ग्रंथियों द्वारा कार्य रूप में परिणित करने की ज़िम्मेदारी भी इसी की है। साथ ही, परिस्थतियों को समझ कर निर्णय लेने की क्षमता से ले कर बौद्धिक अंतर्दृष्टि, तार्किकता, भावनाओं की अभिव्यक्ति, इच्छा-शक्ति, व्यक्तित्व जैसे गुणों के सृजन एवं विकास में भी इसका मुख्य हाथ होता है। ध्यान देने की बात यह है कि रचनात्मक विचार भी यहीं जन्म लेते हैं। सेरिब्रम की ऊपरी सतह, जिसे सेरिब्रल कॉर्टेक्स की संज्ञा दी जाती है, ही ऐसी अधिकांश गतिविधियाँ का कार्यक्षेत्र है।
यह पूरा का पूरा सेरिब्रम मस्तिष्क के जिस भाग पर टिका रहता है उसे थैलमस कहते हैं। ज्ञानेंद्रियों से प्राप्त अधिकांश सूचनाएँ थैलमस से गुज़र कर ही सेरिब्रम तक पहुँचती हैं। थैलमस एवं मेरुदंड के बीच का सारा हिस्सा मस्तिष्क के तने ब्रेन-स्टेम का निर्माण करता है, जिसमें थैलमस के नीचे का हिस्सा हाइपोथैलमस, पूरा मध्य मस्तिष्क एवं पश्चमस्तिष्क को निर्मित करने वाले पॉन्स तथा मेड्युला जैसे अंश शामिल हैं। पॉन्स के पीछे की ओर पश्चमस्तिष्क का एक और भाग सेरिबेलम भी होता है, जिसे छोटा सेरिब्रम भी कहते हैं। इस तथाकथित तने के सभी अवयव परोक्ष या अपरोक्ष रूप से शरीर के विभिन्न क्रिया-कलापों के नियंत्रण से संबद्ध होते हैं। यथा हाइपोथैलमस भूख, प्यास, नींद, ताप, रक्तचाप आदि के नियंत्रण से लेकर कुछ हॉरमोन्स के स्राव के नियंत्रण में लगा रहता है, तो अन्य अवयव मुख्य रूप से अग्रमस्तिष्क के साथ मांसपेशियों के नियंत्रण में सहभागी होते हैं।
सेरिब्रम एवं ब्रेन-स्टेम के बीच होंठों के आकार वाला एक और तंत्र अवस्थित रहता है, जिसे लिंबिक तंत्र का नाम दिया गया है। कुंडलाकार रूप में फैला यह तंत्र तमाम स्नायु-योजकों द्वारा अपने ऊपर अवस्थित सेरिब्रम तथा नीचे अवस्थित ब्रेन-स्टेम से व्यापक रूप से जुड़ा होता है। चूँकि रचनात्मक कार्यों से इसका कुछ विशेष संबंध है, अत: इसके क्रिया-कलापों के बारे में थोड़ा-बहुत जान लेना आवश्यक है। इस तंत्र के आंतरिक सिरों पर स्नायु-कोशिकाओं के संग्रह से निर्मित, बादाम के आकार वाला एमिग्डाला होता है। लिंबिक तंत्र का यह हिस्सा हाइपोथैलमस के ऊपर अवस्थित होता है। यों समझ लें कि यह एमिग्डाला हमारे सुरक्षा-तंत्र का मज़बूत किला है। इसके विभिन्न अवयव भावनाओं की अभिव्यक्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आक्रामकता, आज्ञाकारिता, विनम्रता आदि जैसी भावनाओं की उत्पत्ति एवं अभिव्यक्ति यहीं से नियंत्रित होती है। रचनात्मक कार्य काफ़ी-कुछ भावनाओं से भी जुड़े होते हैं। ज़ाहिर है रचनात्मक कामों में इसकी भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस तंत्र का दूसरा महत्वपूर्ण अवयव है- हिप्पोकैंपस। ग्रीक भाषा में दरियाई घोड़े को हिप्पोकैंपस कहते हैं। लिंबिक तंत्र के इस हिस्से का आकार कुछ-कुछ दरियाई घोड़े से मिलता है। हिप्पोकैंपस लिंबिक-तंत्र के फूले हुए निचले होंठ का निर्माण करता है। लिंबिक-तंत्र का यह महत्वपूर्ण हिस्सा गंध एवं स्मृति से संबंधित संकेतों एवं इनसे जुड़े क्रिया-कलापों के निपटारे में लगा रहता है। स्मृतियों को आवश्यकतानुसार स्मृति पटल पर वापस लाने का ज़िम्मा भी काफ़ी-कुछ इसी हिस्से का काम है, ऐसा अनुमान लगाया जाता है। सामान्य जीवन में किसी चीज़ को सीखने एवं करने में स्मृति का क्या महत्व होता है, यह तो सभी को पता है। रचनात्मक कार्य से जुड़े सभी लोग स्मृति के महत्व को तो और अच्छी तरह जानते और समझते हैं। यादों के बल पर ही कल्पना का महल खड़ा होता है।
स्नायुतंत्र के इस जंगल की संरचनात्मक एवं कार्यकीय जटिलता को समझने-बूझने में मनोवैज्ञानिक, मनोचिकित्सक, न्युरॉलाजिस्ट, न्युरोसर्जन से लेकर मैग्नेटिक रिज़ोनेंस इमेजिंग़ (fMRI) विशेषज्ञ वर्षों से लगे हुए हैं। 'फंक्शनल मैग्नेटिक रिज़ोनेंस इमेजिंग'' (fMRI) की नई विधा ने पिछले एक दशक से इस कार्य को आसान कर दिया है। (लगे हाथों fMRI के बारे में थोड़ा-बहुत जान लेने में कोई हर्ज़ नहीं है। MRI वैसे तो अब काफ़ी लोकप्रिय नाम है और सभी जानते हैं कि इस विधा द्वारा शरीर के उन अंगों के चित्र प्राप्त किए जा सकते हैं जिनका निर्माण कोमल ऊतकों द्वारा होता है, जैसे कि मस्तिष्क। fMRI जैसी विशिष्ट विधा द्वारा किसी कार्य के संपादन के समय मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों की स्नायु कोशिकाओं में होने वाले विद्युतीय परिवर्तनों का आकलन, रक्त के प्रवाह में होने वाले परिवर्तनों द्वारा किया जा सकता है) इसके द्वारा अब हमें धीरे-धीरे इस बात का ज्ञान हो रहा है कि किस कार्य के समय हमारे मस्तिष्क का कौन-सा हिस्सा कितना सक्रिय रहता है। सबसे बड़ी बात जो समझ में आ रही है, वह यह है कि न्युरॉन्स का यह तथा-कथित जंगल अपने-आप में पूर्ण रूप से व्यवस्थित है। यह और बात है कि हम इसकी कार्य-प्रणाली को आज भी पूरी तरह नहीं समझ पाए हैं।
अपने मस्तिष्क एवं स्नायुतंत्र के बारे में थोड़ा बहुत जान लेने के बाद अब समय आ गया है कि इस आलेख के असली मुद्दे यानी रचना-प्रकिया की प्रकिया को समझने का प्रयास करें। आगे बढ़ने से पहले यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि यहाँ रचना का तात्पर्य किसी भी सृजनात्मक कार्य से है। वैसे तो सृजनात्मकता एक सामान्य व्यक्ति के जीवन का भी अभिन्न अंग है और सोचना, समझना, कल्पना करना, कल्पना को साकार रूप देना - इस क्रिया के ही अलग-अलग पहलू हैं, लेकिन साहित्य, कला, विज्ञान आदि के क्षेत्र से जुड़े लोगों में एक अलग प्रकार की सृजनात्मक प्रतिभा एवं मेधा होती है। इस विशिष्ट श्रेणी में साहित्यकारों के साथ-साथ चित्रकार, रंगकर्मी, संगीतकार, वास्तुविद्, शिल्पकार, अभिनेता आदि से लेकर वैज्ञानिक तक सभी शामिल हैं। सृजनात्मकता का आयाम असीम है, फिर भी यदि इसे शब्दों में बाँधने का प्रयास किया जाय तो यह कुछ-कुछ ऐसा होगा- सृजनात्मकता हमारी वह क्षमता है जिसके बल हम कुछ ऐसा कर पाते हैं जो न केवल नया, मौलिक और अनूठा ही हो, बल्कि समुचित एवं उपयोगी भी हो।
सूचना-संवर्धन सृजनात्मकता की आधारभूत प्रकिया है। इस प्रकिया के फलस्वरूप हमें परिस्थिति का संज्ञान या यों कहें कि बोध होता है। तमाम अनुसंधानों का निचोड़ यह है कि सृजनात्मकता के पीछे व्यक्ति के संज्ञान (cognition) यानी बोध क्षमता की मुख्य भूमिका होती है। इस संज्ञान क्षमता के पीछे व्यक्ति की उस क्षमता का बड़ा हाथ होता है जिसके बल पर, स्मृति का वह हिस्सा जिसे उस समय स्मरण पटल पर लाया जा सकता हो, सामने खड़ी समस्या या उत्पन्न विचार पर अनवरत ध्यान केंद्रित रह सकता हो, प्राप्त संज्ञान में लचीलापन बना रह सकता हो तथा औचित्यपूर्ण निर्णय लिया जा सकता हो। चूँकि सेरिब्रम का फ्रांटल-कार्टेक्स-खंड और उसमें भी उसका सबसे अगला हिस्सा प्रीफ्रांटल-कार्टेक्स इन सभी कार्य-कलापों का मुख्य क्षेत्र होता है, अत: सृजनात्मकता का इस खंड से गहरा संबंध है, वैज्ञानिकों का ऐसा सोचना स्वाभाविक एवं सर्वथा उचित है।
बोध या संज्ञान के लिए पर्यावरण से प्राप्त सूचनाएँ अत्यंत महत्वपूर्ण होती हैं। इन सूचनाओं के संग्रहण का कार्य सेरिब्रम के तथाकथित टॉप में होता है। हमारे पास सूचनाएँ प्राप्त करने के सीमित साधन हैं। ये सूचनाएँ प्रकाश, ध्वनि, रासायनिक, यांत्रिक, ताप आदि सीमित ऊर्जा-रूपों ही में हमारे पास पहुँचती हैं। इन सूचना-संकेतो का ग्रहण, उनका संवर्धन एवं अधिकांश भंडारण टॉप में ही होता है। दीर्घ-कालिक स्मृति का भंडारण भी यहीं होता है। इन सूचना-संकेतों के संवर्धन के समय जो संगणना होती है, उसका सम्मिश्रित रूप स्वयं में नवीनता लिए होता है। यह नवीनता कौतुहलयुक्त होती है और सृजन-प्रक्रिया की जन्मदात्री है। इस नवीनता युक्त सूचना सम्मिश्रण पर अनवरत ध्यान केंद्रित रखना सृजनात्मकता की एक और आवश्यकता है। हालाँकि यह कार्य सूचना संकेतों के चयनात्मक संग्रहण के रूप में टॉप में ही प्रारंभ हो जाता है, लेकिन इस पर साभिप्राय ध्यान बनाए रखने का ज़िम्मा प्रीफ्रांटल का है। सृजनात्मक कार्य के संपादन के लिए इन सूचनाओं के नवीनतायुक्त समिश्रण पर अनवरत ध्यान देते रहना आवश्यक है क्योंकि इसी के कारण उस सृजनात्मक कार्य में काम आने वाली स्मृतियों को स्मृतिपटल लाना और उसे कार्य की समाप्ति तक वहाँ बनाए रखना संभव होता है। यह कार्य भी इसी प्रीफ्रांटल में संपन्न होता है। इस स्मृति को तात्कालिक सृजनात्मक कार्य के संदर्भ में कार्यकारी-स्मृति की संज्ञा दी जा सकती है। इसमें तात्कालिक सूचना संबंधी स्मृति के साथ-साथ उससे जुड़े पूर्व अनुभवों की स्मृति को भी स्मृतिपटल पर लाया जाता है। प्राप्त हुई सूचनाओं के समीक्षात्मक विश्लेषण में ये स्मृतियाँ एवं पूर्व अनुभव संशोधक का कार्य करते हैं, साथ ही विचार मंथन की इस प्रक्रिया के संवर्धन में भावनाओं का भी काफ़ी दखल होता है। विचार-संवर्धन की इस प्रक्रिया का मुख्य कार्य-क्षेत्र भी यही प्रीफ्रांटल ही है। विचारों के परिपक्वन के बाद सृजनात्मक सोच भी यहीं जन्म लेती है।
पैराग्राफ़ फिर से पढ़ लीजिए। अब सृजनात्मक प्रक्रिया को समझना-बूझना कोई रसगुल्ला खाना तो है नहीं। आगे लिखने के पहले पीछे का मुझे भी बार-बार पढ़ना पड़ रहा है। थोड़ी तकलीफ़ तो आप को भी उठानी ही पड़ेगी। अगर आप फ्रेश हो गए हों तो आगे बढा जाय. . .
वैज्ञानिकों की खोज से ऐसा प्रतीत होता है कि सृजनात्मक सोच की दो दिशाएँ होती हैं-
1. सुविचारित (intentional), 2. स्वैच्छिक (spontaneous)। सुविचारित सृजनात्मकता में सचेतन मन की मुख्य भूमिका होती है तो स्वैच्छिक सृजनात्मकता मे अवचेतन मन की। सुविचारित सृजन-प्रक्रिया में अनुभवों एव स्मृतियों का विशेष अनुदान होता है तो स्वैच्छिक सृजन-प्रकिया में भावनाओं का। दोनों में ही अंतर्दृष्टि की आवश्यकता पड़ती है, जो बोधगम्यता का परिणाम होती है। बोधगम्यता एवं भावनात्मकता के लिए सुविचारित-सृजनात्मक-सोच तथा स्वैछिक-सृजनात्मक-सोच की दिशा में कुछ सीमा तक मस्तिष्क के अलग-अलग अवयवों का उपयोग होता है। फलत: दोनों में अलग-अलग प्रकार की अंतर्दृष्टि (insight) मिलती है, जिसका परिणाम नई-नई अवधारणाओं के जन्म के रूप में दिखाई पड़ता है। ये अवधारणाएँ नवसृजन की राह को प्रशस्त करती हैं।
पहले प्रकार का सृजन यथार्थ के धरातल पर अनुभवों एवं स्मृतियों के बल होता है तो दूसरे में भावनाओं का ज़ोर होने के कारण, कल्पनाओं का बोल-बाला रहता है। अलग-अलग होते हुए भी इनमें पूर्ण अलगाव नहीं किया जा सकता। ये एक दूसरे के समांतर कार्य करती हैं एवं एक दूसरे को प्रभावित भी करती हैं। अधिकांश सृजनात्मक कार्य इन दोनों का मिश्रित रूप ही होते हैं, लेकिन किसी में यथार्थ का बोल-बाला होता है तो किसी में कल्पना का। यथा- साहित्यिक सृजन में भावनात्मक सोच का बोल-बाला होता है, तो एक वैज्ञानिक सृजन में यथार्थ का। लेकिन न तो साहित्यिक सृजन में यथार्थ को पूरी तरह नकारा जा सकता है और न ही वैज्ञानिक सोच में कल्पना को। जिस प्रकार यथार्थ के पुट के बिना साहित्य उतना प्रभावशाली नहीं बन पाता, उसी प्रकार नए एवं क्रांतिकारी आविष्कारों के लिए कल्पना का महत्व सर्वविदित है। यह कल्पना का घोड़ा ही है जो नवीन एवं क्रांतिकारी सृजन करवाता है। पूर्व ज्ञान एवं अनुभव तो ऐसे सृजन के रास्ते में अक्सर रोड़े ही अटकाते हैं। किसी में चेतना का पक्ष ज़्यादा प्रभावी होता है तो किसी में अवचेतना। इसी के अनुरूप वह पहले या दूसरे प्रकार के सृजनकार्य में प्रतिभावान होता है।
कल्पनालोक में डूब कर कुछ नवीन एवं क्रांतिकारी सृजन कार्य करने लगता है, इसका उसे स्वयं भी पता नहीं लगता। साहित्यिक सृजन में मदिरा या फिर अन्य मादक पदार्थों के सेवन का चलन अक्सर देखा गया है जो व्यक्ति की चेतना को मुख्य बिंदु से थोड़ा भटका सकें। या फिर किया जाने वाला सृजनात्मक कार्य स्वयं ही नशेदायक होता है और उसमें डूबा व्यक्ति कल्पनासागर में गोते लगाता हुआ सृजनात्मक कार्य में लिप्त रहता है। विज्ञान जगत में भी ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जिसमें त्वरित सोच के परिणाम स्वरूप आश्चर्यजनक आविष्कार न हुए हों। न्यूटन द्वारा गिरते सेब को देख कर गुरुत्वाकर्षण के नियम खोजने की प्रेरणा पाने वाली घटना या फिर केकुले द्वारा अर्धनिद्रा की अवस्था में साँपनुमा आकृति को गोल-गोल घूमते देख बेंजीन जैसे रसायन की संरचनात्मकता के बारे में साइक्लिक आकार की परिकल्पना को समझ लेने की घटना, आदि ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं। लेकिन विज्ञान के क्षेत्र में किए गए अधिकांश आविष्कार सुविचारित सृजन के क्षेत्र में आते हैं जिसमें व्यक्ति के पास उस विषय का आधारभूत ज्ञान अवश्य होता है, लेकिन इसके साथ लीक से हट कर सोचने की क्षमता भी अवश्य होती है। साहित्य एवं कला के क्षेत्र में भी काफ़ी-कुछ सोच-समझ कर ही किया जाता है।
आवश्यक है। प्रीफ्रांटल कार्टेक्स के इस अंश का ऊपरी एवं किनारे का भाग कार्यकी की दृष्टि से इसके निचले एवं मध्य अवस्थित भाग से अलग होता है। ऊपरी एवं किनारे के भाग का बायाँ अंश स्मृति के पुनर्जागरण से संबद्ध होता है, तो दायाँ भाग समस्या की ओर अनवरत ध्यान बनाए रखने की क्रिया से संबद्ध होता है। यह भाग सेरिब्रम के टॉप से यथेष्ठ रूप से जुड़ा होता है अर्थात वहाँ से प्राप्त सूचनाओं से इसका सीधा संबंध है। निचले एवं मध्य अवस्थित भाग का लिंबिक तंत्र, विशेषकर एमिग्डाला से घनिष्ठ रूप से होता है। संभवत: यह भाग इस तथ्य का आकलन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है कि अभिव्यक्त भावनाओं का स्वयं पर क्या अनुकूल अथवा प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। यह आकलन तर्कसंगत निर्णय लेने में सहायक होता है। टॉप एवं एमिग्डाला से घनिष्ठ रूप से संबद्ध होने के कारण प्रीफ्रांटल कॉर्टेक्स दोनों प्रकार की सृजन-प्रक्रिया में संतुलन एवं संयोजन बनाए रखने में संलग्न रहता है।
इतना ही काफ़ी है। कारण, इस संबंध में बहुतेरी जानकारियाँ अभी भी आधी-अधूरी हैं और बहुत कुछ परोक्ष रूप से किए प्रयोगों पर आधारित एवं अनुमानित हैं। इस दिशा में अनुसंधान कार्य अभी भी चल ही रहा है। वैसे भी गाड़ी चलाने के लिए कोई ज़रूरी थोड़े ही है कि इंसान मैकेनिक बन जाय। वो है न कहावत- थोड़ा कहना, ज़्यादा समझना। जितना जान लिया, उतना ही समझ लिया तो बहुत है। ज्ञान का कोई अंत है क्या? जितना मेरी समझ में आया और एक आम इंसान की उत्सुकता को मिटाने के लिए जितना ज़रूरी समझा, उतना ही देने का मेरा प्रयास रहा है।
आप की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है।