2008/06/04

हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली औरउसके जुझारू सैनिक-5

हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली औरउसके जुझारू सैनिक-५
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कल के अंक से आगे........कैसे होता यह सब? आइए, अब इसे समझने का प्रयास किया जाए।
सामान्यतया एक स्वस्थ मनुष्य में लगभग बीस खरब लिम्फोसाइट्स होती हैं एवं इनका उत्पादन मुख्य रूप से हमारी अस्थिमज्जा में होता है। जिस प्रकार सेना के विभिन्न अंगों एवं दस्तों का प्रशिक्षण अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीके से होता है, इसी प्रकार उत्पादन के बाद कुछ लिम्फोसाइट्स का प्रारंभिक प्रशिक्षण, परिमार्जन एवं परिपक्वन तो अस्थिमज्जा में ही होता है एवं बाकी को थाइमस नामक ग्रंथि में भेज दिया जाता है। अस्थिमज्जा में प्रशिक्षित, परिमार्जित एवं परिपक्वित होने वाले लिम्फोसइट्स को बी लिम्फोसाइट्स एवं थाइमस वाले को टी लिम्फोसाइट्स नाम दिया गया है। इन प्राथमिक लिंफ़्वॉयड अंगों में परिपक्वन के बाद इन्हें लिम्फ़ऩोड्स, स्प्लीन एवं टांसिल जैसे परवर्ती लिंफ्वॉयड अंगों में भेज दिया जाता है, जहाँ जीवाणुओं एवं उनसे उत्पादित विशिष्ट रसायनों एंटीजेंस का सामना करते हुए इनकी संख्या में वृद्धि होती है एवं एंटीजेन-विशिष्ट से निपटने के लिए इनमें सक्रियता आती है।यह प्रणाली तभी सक्रिय होती है जब इसका सामना जीवाणु-विशेष या फिर उनके एंटीजेन-विशेष से होता है। वास्तव में ये एंटीजेंस केवल प्रोटीन या फिर प्रोटीनयुक्त अन्य रसायनों के बड़े अणु होते हैं एवं इनका निर्माण शरीर की अपनी कोशिकाएँ भी करती हैं तथा जीवाणुओं की कोशिकाएँ भी। इन बी एवं टी लिंफोसाइट्स में यह अद्भुत क्षमता होती है कि ये इन बाहरी एंटीजेंस को अपने शरीर की कोशिकाओं द्वारा उत्पादित स्व-एंटीजेंस से अलग कर तुरंत पहचान लेती हैं एवं उन्हीं के विरुद्ध प्रतिरोधक कार्रवाई करती हैं। ऐसा इस लिए संभव हो पाता है क्योंकि हरेक एंटीजेन के भाग-विशेष में अणुओं-परमाणुओं का ऐसा संयोजन होता है जो इन्हें विशिष्ट पहचान देता है। एंटीजेंस के इन विशिष्ट अंशों को एंटीजेनिक डिटर्मिनेंट्स की संज्ञा दी गई है। इन्हीं एंटीजेनिक डिटर्मिनेंट्स को ये लिंफोसाइट्स अपने द्वारा उत्पादित एंटीबॉडी-विशेष या फिर अपने बाहरी सतह पर अवस्थित रिसेप्टर-विशेष की मदद से तुरंत पहचान लेते हैं एंव उनके विरुद्ध प्रतिरक्षात्मक कार्रवाई प्रारंभ कर देते हैं। निश्चय ही नाना प्रकार के विदेशी एंटीजेंस की पहचान के लिए नाना-प्रकार के एंटीबॉडीज़ उत्पादित करने वाले एवं नाना प्रकार के एंटीजेन-रिसेप्टर से युक्त लिंफोसाइट्स की आवश्यकता पड़ती है।

हालाँकि बी एवं टी लिंफोसाइट्स अर्जित प्रतिरक्षा तंत्र के ही हिस्से हैं और एक दूसरे से संबद्ध भी हैं फिर भी इनके काम करने का तरीका अलग-अलग होता है। बी लिंफोसाइट्स एंटीजेन-विशेष को उसी प्राकृतिक रूप में पहचाने की क्षमता रखते हैं। यह क्षमता इनके बाहरी सतह पर अवस्थित बी सेल रिसेप्टर्स या फिर विशेष प्रकार के इम्युनोग्लोबिन्स की उपस्थिति के कारण होती है। टी लिंफोसाइट्स एंटीजेंस को उनके प्राकृतिक रूप में नहीं पहचान सकते। ये केवल परिमार्जित एंटीजेंस की ही पहचान कर सकते हैं। यह परिमार्जन मुख्य रूप से डेंड्राइटिक, बी या फिर मैक्रोफेजेज़ कोशिकाओं द्वारा किया जाता है। इसी लिए इन कोशिकाओं को एंटीजेन प्रजेटिंग कोशकाओं के नाम से भी जाना जाता है।


[जारी है.....]

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