प्रस्तुत है भाग -२
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हमारे पर्वतों तथा ध्रुवीय प्रदेशों पर ज़मी लाखों टन बर्फ़ जब एक साथ पिघलने लगेगी तो और क्या अपेक्षा की जा सकती है। यह पिघलती बर्फ़ हमारे सागरों और महासागरों का जल–स्तर कई–कई मीटर तक ऊंचा कर सकती है जो फिर नदियों एवं अन्य जलाशयों को भी प्रभावित करेगा ही। परिणाम– चारों तरफ़ बाढ़ ही बाढ़। यह बाढ़ हमारे अधिकांश मैदानी भागों को लील जाएगी। फिर न हम बचेंगे और न ही अन्य जीव–जंतु। खैर यह तो बाद में होगा। बढ़ता ताप अभी भी अपनी रंगत छोटे–बड़े रूप में दिखा ही रहा है। आइए¸ ज़्यादा नहीं¸ बस पिछले सालों के समय–अंतरालहाल में घटी कुछ घटनाओं पर ही नज़र डाली जाए। ये घटनाएं मात्र कपोल–कल्पना नहीं हैं बल्कि विभिन्न वैज्ञानिक तथा पर्यावरण संस्थाओं द्वारा किए गए अध्ययन का निचोड़ हैं। इन पर दृष्टिपात करने के बाद आप को समझ में आ जाएगा कि बढ़ते ताप के फिलहाल क्या–क्या दुष्प्रभाव हो सकते हैं और भविष्य में ये किस प्रकार की भयानक परिस्थितियों की ओर संकेत कर रहे हैं।
*जनवरी 2005 में वल्र्ड वाइल्ड लाइफ़ फंड के एक अध्ययन के अनुसार उत्तर ध्रुवीय क्षेत्र के बर्फ़–अक्षादित क्षेत्रफल में प्रति दशक के हिसाब से 9 .2 प्रतिशत की कमी हो रही है और ऐसा विशेषकर ग्रीष्मकालीन समुद्री बर्फ़ में कमी के कारण हो रहा है। ज़ाहिर है¸ यह वातावरण ताप में वृद्धि का कुपरिणाम है। जीवधारियों पर इसका कुप्रभाव— लगभग 22¸000 पोलर बियर की जनसंख्या के विलुप्त होने का ख़तरा।
*फरवरी 2005 में प्रकाशित ब्रिटिश एंटाiक्र्टक सर्वे की एक रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण ध्रुवीय क्षेत्र अवस्थित लार्सेन बी नामक एंटाiक्र्टक आइस शीट¸ जिसके बारे में अब तक समझा जाता कि यह पत्थर के समान अविचल संरचना है¸ बढ़ती गर्मी के कारण धीरे–धीरे विघटित होना प्रारंभ कर चुकी है। इसका कुपरिणाम इस क्षेत्र के 300 – 400 ग्लैशियरों के आकार में कमी के रूप में परिलक्षित हो रहा है।
*युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के वैज्ञानिकों द्वारा जून 2005 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार साइबेरिया –क्षेत्र के सैटेलाइट द्वारा लिए गए चित्र यह दशार्ते हैं कि इस क्षेत्र में अवस्थित आiक्र्टक झीलों पर जमी लगभग स्थाई बर्फ़ धीरे–धीरे पिघल रही है¸ जिसके परिणाम स्वरूप झीलें विलुप्त होती जा रही हैं। 1973 तक इस क्षेत्र में झीलों की संख्या 10882 थी जो अब घट कर मात्र 9712 रह गई हैं। मात्र बत्तीस साल के अंतराल में ऐसी एक सौ पच्चीस झीलें पूरी तरह विलुप्त हो चुकी हैं।
रूट्गर युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों द्वारा हाल ही में किए गए एक अध्ययन के अनुसार सभी सागरों का जल–स्तर सामान्यरूप से प्रतिवर्ष 2 मी .मी. की से बढ़ रहा है। वर्तमान वृद्धि का यह दर औद्योगिक क्रांति के पहले के वर्षों की तुलना में दुगना है। यदि धरती के सामान्य ताप में वृद्धि के रोक–थाम के समुचित उपाय समय रहते न किए गए तो इस दर के बढ़ते ही जाने की संभावना अधिक है। एक अनुमान के अनुसार इस शताब्दी के अंत तक हमारे समुद्रों का जल–स्तर लगभग एक मीटर तक या उससे भी ऊंचा उठ सकता और तब भविष्य में इसके कुपरिणाम की कल्पना तो की ही जा सकती है।
*मैसाच्युसेट इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के वैज्ञानिकों द्वारा जुलाई 2005 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार पिछले तीन दशकों में ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में उठने वाले चक्रवात धीरे–धीरे काफ़ी प्रबल होते जा रहे हैं। चक्रवात में उठने वाली हवा की गति में कम से कम 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
*जुलाई 2005 में पश्चिमी भारत मे आई बाढ़ इस सदी की भयंकर बाढ़ों में एक थी। महाराष्ट्र के अधिकांश भाग इससे बुरी तरह प्रभावित हुए। मुंबई में ही मात्र 24 घंटे के अंदर 940 मिली मीटर बरसात हुई। इस बाढ़ ने लगभग 1000 लोगों की जान ले ली। धन–संपदा के नुकसान के बारे में तो कहना ही क्या। नवंबर–दिसंबर 2005 तमिल नाडु और आस–पास के क्षेत्र भयानक बरसात तथा बाढ़ के गवाह हैं। मौसम विभाग के अनुसार आने वाला समय कोई शुभ समाचार ले कर नहीं आने वाला है। और भी बारिश एवं आंधी–तूफ़ान के ही संकेत मिल रहे हैं। प्रशांत महासगर के क्षेत्र से उठने वाले तूफ़ानों की संख्या तथा उनकी प्रबलता में भी इस वर्ष काफ़ी वृद्धि हुई है और इन्होंने मिल कर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है।
*1933 के 21 आंधियों तथा 1969 के 12 तूफ़ानों की तुलना में इस वर्ष की 25 आंधियां एवं 12 तूफ़ान अप्रत्याशित कीर्तिमान ही हैं। कैट्रीना और रिटा जैसे तूफ़ानों तथा इनसे हुई तबाही को अमेरिकावासी भला जल्दी भूल सकते हैं क्या?
और तो और धरती के बढ़ते ताप का प्रभाव मानव समाज के स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है। वल्र्ड हेल्थ ऑर्गेनाज़ेशन द्वारा हाल ही में प्रस्तुत एक रिपोर्ट के अनुसार हमारे क्रिया–कलापों के फलस्वरूप वातावरण में हो रहे परिवर्तनों का कुपरिणाम¸ विशेषकर ताप–वृद्धि के कारण¸ प्रतिवर्ष लगभग 50 लाख लोगों को बीमारी के रूप में भुगतना पड़ रहा है और लगभग डेढ़ लाख लोग काल के गाल में समा जा रहे हैं।
*युनिवर्सिटी ऑफ विस्कांसिन–मेडिसन तथा वल्र्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन के वैज्ञानिकों के अनुसार त्रासदी यह है कि इस धरती को गरमाने में पश्चिमी देशों¸ विशेषकर तथाकथित विकसित देशों का मुख्य हाथ है। त्रासदी यह है कि इसका कुपरिणाम प्रशांत तथा हिंद महासागर के तटीय देशों एवं अफ्रीका के सहारा रेगिस्तान के आस–पास के देशों को¸ जहां धरती को गरमाने वाले क्रिया–कलाप न्यूनतम हैं¸ तमाम संक्रामक तथा जीवाणुजनित रोगों जैसे मलेरिया से लेकर दस्त या फिर कुपोषण जैसी स्थितियों के रूप में भुगतना पड़ रहा है। भविष्य में स्थिति के बदतर होने के ही आसार ज़्यादा हैं। कारण¸ उच्च ताप जीवाणुओं को पनपने का बेहतर सुअवसर देते हैं। साथ ही ये देश इतने गरीब हैं कि ऐसी स्थिति से निपटने के लिए न तो इनके पास साधन हैं और न ही सुविधा। करे कोई¸ भरे कोई।
स्थिति भयावह है और इसके लिए काफ़ी हद तक हमारे क्रिया- कलाप ही ज़िम्मेदार हैं.
[जारी है..........]
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