2008/05/30

हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली और उसके जुझारू सैनिक-2

हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली और
उसके जुझारू सैनिक-2
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[गतांक से आगे]............

शरीर के कई आंतरिक अंगों की अंदरूनी सतह का निर्माण करने वाली एंडोथीलियल मेंब्रेन की कोशिकाएँ प्राय: एक ही परत में सिमटी होती हैं लेकिन ये कई प्रकार की होती हैं और तरह-तरह से हमें सुरक्षा प्रदान करती है। यथा- आहार नाल, श्वसन तथा प्रजनन तंत्र के विभिन्न हिस्सों में ये एक प्रकार के गाढे द्रव का श्राव करती है जो इन तंत्रों में घुसे जीवाणुओं तथा अन्य बाहरी तत्वों को फँसाने का कार्य करती हैं एवं अन्य प्रकार की कोशिकाएँ जिनके बाहरी सतह पर अत्यंत बारीक बालनुमा संरचनाएँ होती हैं, इन जीवाणुओं को इन अंगों से बाहर निकालने के प्रयास में लगी रहती हैं। छींकना, खाँसना आदि इसी प्रयास के उदाहरण हैं। कई अंगों में ये एंडोथिलियल कोशिकाएँ ग्रंथि का रूप ले लेती हैं, जिनके श्राव तरह-तरह से हमारी सुरक्षा करते हैं। यथा- मुख में लार, आँखों में आँसू या फिर स्तन में दूध का उत्पादन करने वाली ग्रंथियाँ लाइसोज़ाइम एवं फास्फोलाइपेज़ नामक एंज़ाइम का श्राव भी करती हैं, जो बैक्टीरिया के सेलवाल को ही पचाने की क्षमता रखती हैं और इस प्रकार इन अंगों में उनका विनाश करती रहती हैं। हमारे आमाशय में ऑक्ज़िटिक नामक एंडोथीलियल कोशिकाएँ हाइड्रोक्लोरिक एसिड के उत्पादन में संलग्न रहती हैं। यह एसिड भोजन के साथ घुस आए अधिकांश बैक्टीरिया का सफाया कर देने की क्षमता रखता है। त्वचा एवं श्वसन तंत्र की कोशिकाएँ भी बीटा डिफेंसिन जैसे एंटीबैक्टीरियल रसायन का श्राव करती हैं, जो जीवाणुओं के विनाश में काम आते हैं।

हमारे शरीर की कुछ विशिष्ट कोशिकाएँ जब वाइरस से संक्रमित होती हैं तो एक विशेष प्रकार के ग्लाइकोप्रोटीन्स इंटरफेरॉन्स का उत्पादन करती हैं। ये रसायन आसपास की कोशिकाओं को वाइरस संक्रमण के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता से सुसज्जित करने में सहायक होते हैं। परिणाम स्वरूप व्यक्ति की वाइरस प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है।
इसके अतिरिक्त प्रकृति ने हमारे जनन, उत्सर्जन एवं आहार नाल के शरीर के बाहर खुलने वाले छिद्रों एवं उनसे जुड़ी नलिकाओं में हानिरहित सहभोजी बैक्टीरिया का जंगल उगा रखा है। इन रास्तों से शरीर में घुसने वाले हानिकारक जीवणुओं का प्रतिरोध ये सहभोजी बैक्टीरिया भी करते हैं। ये बैक्टीरिया इन संक्रामक जीवाणुओं से भोजन एवं आवास के लिए प्रतिस्पर्धा करने के साथ-साथ इन स्थानों की क्षारीयता एवं अम्लीयता मे परिवर्तन कर संक्रामक जीवाणुओं का जीवन दूभर कर देते हैं। इन कारणों से इन रास्तों से घुसने वाले जीवाणुओं की संख्या उस सीमा तक नही पहुँच पाती जिससे व्यक्ति रोग-ग्रसित हो जाए।

नाना प्रकार के प्रतिरोधकों-अवरोधकों से सुसज्जित नैसर्गिक सुरक्षा प्रणाली का वरदान प्रकृति ने हमें दिया है। भला हम किस कर्ण से कम सौभाग्यशाली हैं? लेकिन बहुत खुश होने की आवश्यकता नहीं है। इन तमाम व्यवस्थाओं के बावजूद भी रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणु हमारे शरीर मे घुस ही जाते हैं एवं तरह-तरह के रोगों का कारण बनते हैं। आख़िर ये संक्रामक जीवाणु कोई हँसी खेल तो है नहीं। इनके पास भी तरह-तरह के रसायनों के रूप मे सक्षम आक्रमक क्षमता होती है, जो हमारी नैसर्गिक सुरक्षा प्रणाली को ध्वस्त कर सकती है और इन्हें हमारे शरीर में प्रवेश दिला सकती है। ये रसायन मुख्य रूप से एंज़ाइम्स ही होते हैं जो हमारी बाह्य सुरक्षा प्रणाली की कोशिकाओं को नष्ट कर शरीर में इनके प्रवेश को सुगम बनाते हैं।

शरीर में ये जीवाणु येन-केन प्रवेश पा गए इसका मतलब यह नहीं है कि बस, अब शरीर पर इनका साम्राज्य स्थापित हो गया। शरीर के अंदर भी इनसे निपटने के हमारे पास तमाम कारगर तरीक़े हैं। कुछ तरीक़े तो ऊपर वर्णित नैसर्गिक सुरक्षा प्रणाली के ही अंग हैं लेकिन बाकी हमारे द्वारा अर्जित सुरक्षा प्रणाली के हिस्से हैं, जिनकी कार्य प्रणाली जटिल परंतु ज़्यादा कारगर है।
लेख के अगले अंक में नैसर्गिक तरीक़ों की जाँच पड़ताल कर ली जाए फिर उस के अगले अंक में अर्जित सुरक्षा प्रणाली (AQUIRED) पर बातचीत की जाएगी।

[जारी है...........]

2 comments:

शायदा said...

इतनी सुंदर भाषा में इतनी अच्‍छी जानकारी देने के लिए धन्‍यवाद।

Dr.G.D.Pradeep said...

Dhnywaad Shayda ji,
pathakon ki pratikriyaOn se hi manobal badhta hai..