2008/05/31

हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली और उसके जुझारू सैनिक-3

हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली औरउसके जुझारू सैनिक-३
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जैसा मैंने कल के अंक में कहा था....आइए, पहले इस अंक में नैसर्गिक तरीक़ों की जाँच पड़ताल कर ली जाए, फिर अगले अंक में अर्जित सुरक्षा प्रणाली (AQUIRED) पर बातचीत की जाएगी।
जैसा कि पहले भी उल्लेख किया गया है, नैसर्गिक सुरक्षा प्रणाली के सभी अवयव निर्विश्ष्टि प्रकार के होते हैं अर्थात ये रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं अथवा अन्य हानिकारक तत्वों के (जिनका प्रवेश शरीर में बाहर से होता हो) खिलाफ़ समान रूप से कार्रवाई करते हैं। इस कार्रवाई में ऐसे जीवाणुओं एवं हानिकारक तत्वों की पहचान से लेकर उनका विनाश सब कुछ शामिल होता है। जीवाणुओं के किसी अंग या ऊतक में प्रवेश करते ही सबसे पहली प्रतिक्रिया उस अंग विशेष अथवा ऊतक में प्रदाह के रूप में देखी जाती है। यह प्रदाह उस अंग या ऊतक में सूजन एवं लालिमा के साथ-साथ दर्द एवं बुखार के रूप में परिलक्षित होता है। इसका कारण है, इस संक्रमित क्षेत्र में रक्त प्रवाह का अचानक बढ़ जाना। संक्रमण के कारण घायल अथवा संक्रमित कोशिकाएँ मुख्य रूप से दो प्रकार के रसायन समूहों का उत्पादन एवं श्राव करने लगती हैं- एइकोसैन्वाएड्स तथा साइटोकाइन्स। एइकोसैन्वायड्स समूह का एक उदाहरण प्रोस्टाग्लैंडिंस है, जो ताप बढ़ाने एवं रक्त वाहिनियों को फैला कर उस क्षेत्र मे रक्त प्रवाह को बढ़ाने का काम करते हैं। इसी समूह के रसायन का दूसरा उदाहरण है- ल्युकोट्रीन्स, जो संक्रमित क्षेत्र में ल्युकोसाइट्स (श्वेत रक्त कणिकाओं) को अधिक से अधिक संख्या में आकर्षित करती है। बढ़ा हुआ ताप जीवाणुओं को मारने या फिर उनकी संख्या कम करने में सहायक होता है क्योंकि उच्च ताप पर जीवाणुओं के एन्ज़ाइम्स नष्ट होने लगते हैं। ल्युकोसाइट्स (जो हमारी मुख्य सुरक्षा सेना है) की उपयोगिता के बारे में आगे बताया जाएगा। इंटरल्युकिंस, ल्युकोसाइट्स के मध्य संचार माध्यम का कार्य करती हैं तथा इंटरफेरॉन्स, जो वाइरस-संक्रमित कोशिकाओं में प्रोटीन संश्लेषण को बंद कर वाइरस प्रतिरोधी प्रभाव उत्पन्न करते हैं- साइटोकाइन्स समूह के उदाहरण हैं।
साइटोकाइन्स तथा इसी प्रकार के अन्य रसायन संक्रमित क्षेत्र मे अधिक से अधिक संख्या में नाना प्रकार के प्रतिरोधी कोशिकाओं को आकर्षित करते हैं ताकि घायल ऊतकों की मरम्मत के साथ-साथ जीवणुओं का सफाया भी किया जा सके।
उपरोक्त प्रतिरक्षा उपायों में ल्युकोसाइट्स ज़िक्र आया है। वास्तव में ये मुख्य रूप से पाँच प्रकार के होते हैं - इयोसिनोफिल्स, बेसोफिल्स, न्युट्रोफिल्स, मोनोसाइट्स एवं लिम्फोसाइट्स। इन सभी का उत्पादन हमारी अस्थियों की श्वेत मज्जा में ही होता है, परंतु इनकी संरचना एवं कार्यविधि में अंतर होता है। न्युट्रोफिल्स तथा मोनोसाइट्स स्वतंत्र रूप से विचरण करने वाली भक्षक कोशिकाओं की श्रेणी मे आती हैं। मोनोसाइट्स संक्रमित ऊतक में पहुँच कर मैक्रोफेजेज़ में पविर्तित हो जाती हैं। ये कोशिकाएँ संक्रमित ऊतकों में घूम-घूम कर जीवाणुओं का न केवल पहचान करती हैं, बल्कि उनसे चिपट कर (यदि वे आकार में बड़े हैं) या फिर उनका भक्षण कर (यदि वे आकार में छोटे हैं), सफाया करती हैं। इनके अतिरिक्त ऊतकों में उपस्थित नेचुरल किलर सेल्स वाइरस संक्रमित एवं ट्युमर कोशिकाओं के मेंब्रन में छिद्र बनाते हैं जिनके द्वारा इनमें पानी घुसने लगता है और अंत में ये कोशिकाएँ फट कर नष्ट हो जाती हैं। इनके अतिरिक्त कुछ सीमा तक इओसिनोफल्सि, बेसेफिल्स, ऊतकों में पाए जाने वाले डेंड्राइटिक तथा मास्ट कोशिकाएँ भी इस नैसर्गिक प्रतिरक्षा प्रणाली के हिस्से हैं जो येन-केन-प्रकरेण जीवाणुओं का सफाया करनें में सहायक होती हैं।
इनके अतिरिक्त तीस से भी अधिक प्रोटीन्स से सुसज्जित एक पूरक तंत्र भी होता है जो न केवल नैसर्गिक अपितु अर्जित सुरक्षा प्रणाली में भी भागीदार है। इस तंत्र के प्रोटीन्स तरह-तरह के तरीक़ों से इन संक्रामक जीवाणुओं से हमारी रक्षा करने में जुटे रहते हैं।
कैसे? इसकी चर्चा अगले अंक में अर्जित सुरक्षा प्रणाली की चर्चा के साथ की जाएगी।


[जारी है........]

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