2008/08/22

रचना-प्रक्रिया की प्रक्रिया

रचना-प्रकिया की प्रक्रिया. . .शीर्षक जटिल है न? मुझे भी लग रहा है, लेकिन किया क्या जाय? यह तो होना ही था। आख़िर यह रचनाकारों के दिमाग़ का मामला है, कोई दिल्लगी नहीं!

दिल्लगी से याद पड़ा, चाहे सामान्य सोचने-समझने की प्रक्रिया हो या फिर चाहे प्यार, गुस्सा, उत्तेजना, घृणा जैसी भावनाओं का उफान हो - दिल का इनसे कुछ लेना-देना नहीं है, यह बिचारा तो मुफ़्त में बदनाम है। इसकी ग़लती बस इतनी ही है कि भावनाओं के उतार-चढ़ाव के साथ इसके धड़कनों की रफ़्तार बढ़ जाती है और वह भी इस दौरान हमारे दिमाग़ में चल रही विद्युत-रासायनिक प्रक्रियाओँ तथा अंत:स्रावी ग्रंथियों से स्रावित हॉरमोन्स के कारण ऐसा होता है। वरना यह बिचारा तो बस 72 बार प्रति मिनट के हिसाब से धड़कते हुए आप की शिराओं एवं धमनियों में निश्चित रफ़्तार से रक्त को दौड़ाते रहने के काम में ही व्यस्त रहता है ताकि आप के शरीर की अरबों-ख़रबों कोशिकाओं को पोषक तत्वों एवं ऑक्सीजन की सतत आपूर्ति बनी रहे।

सोचने-समझने की न तो इसके पास क्षमता है और न ही समय। न. . .न. . .भावनाओं का संबंध दिल से जोड़ने में न तो सामान्य व्यक्ति की ग़लती है और न ही रचनाकारों, विशेषकर साहित्यकारों की। अब जाने-अनजाने यह भ्रम प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू को भी था कि सोचने-समझने से लेकर भावनाओं के उतार-चढ़ाव का काम दिल करता है! और ऐसा सोचने में ग़लत क्या है? आख़िर हम हर समय दिल की धड़कन को ही महसूस कर पाते हैं, दिमाग़ में क्या चल रहा है, इसका तो हमें पता भी नहीं चलता। हद तो यह है कि इस चक्कर में जिगर यानि यकृत यानि लिवर को भी शामिल कर लिया गया। वो है न गाना - 'तुमसे अच्छा कौन है, दिल, जिगर और जान लो. . . या फिर 'तुम मेरे जिगर के टुकड़े हो' आदि! लीजिए मैं भी इस दिल-जिगर के चक्कर में पड़ कर असली मुद्दे से भटक गया था। क्या करूँ, यह दिल कमबख़्त चीज़ ही ऐसी है और इसका मामला भी कोई दिल्लगी वाला नहीं है। तभी तो बड़े-बड़े लोग सदियों से इसी के लेन-देन और जोड़-तोड़ में लगे हुए हैं। तो फिर मैं क्या चीज़ हूँ?

खैर अब वक्त आ गया है कि दिल का मामला यहीं ख़ारिज कर दिमाग़ के बारे में दिमाग़ से सोचा समझा जाए क्यों कि यहीं पर रचना प्रक्रिया की असली प्रक्रिया चलती है। यह मैं नहीं सदियों के अनुसंधान के बाद वैज्ञानिक ऐसा कहते हैं और वह भी सप्रमाण।

हमारी खोपड़ी में अवस्थित, मात्र तीन पौंड के भार वाले इस दिमाग़ या मस्तिष्क की जटिल संरचना को समझना कोई आसान काम नहीं है। इसकी कार्य प्रणाली तो इससे भी जटिल है, संभवत: इस संसार में पाए जाने वाले किसी भी तंत्र से कई गुना जटिल! सच तो यह है कि इतने अनुसंधानों के बाद भी हम इसे पूरी तरह आज तक नहीं समझ पाए हैं और इस झंझट में हमें पड़ना भी नहीं है। कारण, इस काम में इस पत्रिका के सारे पन्ने भी शायद कम पड़ जाएँ। आइए, बस काम भर की बातें जान कर इसकी जटिलता का कुछ अंदाज़ा लगा लें जिससे एक रचनाकार के मस्तिष्क में रचना की प्रक्रिया किस प्रकार चलती है, इसे समझने में ज़्यादा कठिनाई न हो।

जिलैटिन तो पता है न? उसी जैसी सघनता और अखरोट जैसी सूरत-शक्ल वाले इस नरम एवं कोमल अंग के निर्माण में इसके रचनाकार ने सौ करोड़ से भी अधिक विशेष प्रकार की धागेनुमा कोशिकाओं का उपयोग किया है, जिन्हें हम न्युरॉन के नाम से पुकारते हैं। ये न्युरॉन्स बड़े ही संवेदनशील होते हैं। इन्हें विभिन्न प्रकार के उद्दीपकों यथा प्रकाश, ताप, विद्युत, चुंबकीय, यांत्रिक ऊर्जा या फिर नाना प्रकार के रसायनों द्वारा उकसाया जा सकता है। उकसाए जाने पर इन कोशिकाओं में कुछ मिलीवोल्ट की तीव्रता वाली विद्युत तरंगें उत्पन्न होती हैं। इन तरंगों के रूप में सूचना न्युरॉन्स के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँचती है। हमारे मस्तिष्क का प्रत्येक न्युरॉन कम से कम 25000 दूसरे न्युरॉन्स से सिनैप्स द्वारा कार्य रूप से संबद्ध होता है। विद्युत तरंगों के प्रभाव में न्युरॉन का अंतिम सिरा विशेष प्रकार के रसायन का स्राव करते हैं, जिन्हें न्युरोट्रांस्मिटर की संज्ञा दी गई है। एक न्युरॉन एक ही प्रकार का न्युरोट्रांस्मिटर का स्राव करने की क्षमता रखता है। लेकिन अलग-अलग न्युरॉन्स से स्रावित होने वाले न्युरोट्रांस्मिटर अलग-अलग प्रकार के हो सकते हैं। इनका प्रभाव भी अलग-अलग होता है। अब तक कम से कम ऐसे एक या दो नहीं, कम से कम 100 से भी अधिक न्युरोट्रांस्मिटरों का पता लगाया जा चुका है- जैसे एसिटिलकोलीन, एड्रिनलीन, डोपामाइन आदि। ये रसायन छन कर सिनैप्स में आ जाते हैं एवं उन सभी न्युरॉन्स में उसी तीव्रता वाली विद्युत तरंगों का उत्पादन करते हैं जिनसे पहले न्युरॉन का संबंध होता है। इस प्रकार एक न्युरॉन में प्राप्त सूचना को कम से कम 25000 न्युरॉन्स में तो संप्रेषित किया ही जा सकता है।

फिर इन 25000 न्युरॉन्स में से प्रत्येक न्युरॉन अगले 25000 न्युरॉन्स से संबद्ध होता है। हमारे मस्तिष्क के 100 करोड़ से भी अधिक न्युरॉन्स आपस में अरबों-ख़रबों सिनैप्सेज द्वारा मकड़जाल के समान एक दूसरे से जुड़े रहते हैं। इसकी जटिलता इंटरनेट की जटिलता से भी कई गुना अधिक होती है। इसमें न्युरॉन्स के संबंध समय के साथ बदलते भी रहते है। घूम गई न खोपड़ी! लेकिन जनाब अभी कहाँ अंत है इसका? ज़रा दिल थाम कर. . .सॉरी, दिमाग़ खोल कर बैठिए। यह तो झलक भर है। अगर पूरा समझाने बैठूँगा तो बहुतों का दिमाग़ ख़राब हो सकता है। अभी तो बस इतना ही समझ लें कि इस पूरे मकड़जाल में सूचनाओं का संप्रेषण एवं उसका संसाधन बहुत ही जटिल एवं आसानी से न समझ में आने वाली विधा है। फिर भी थोड़ी हिम्मत करिए तो मैं भी इसकी कुछ और झलकियाँ प्रस्तुत करने का साहस करूँ। क्या कहा? थोड़ा सुस्ता लिया जाय? चलिए आप वाली ही सही।

तो आगे की बात यह है कि हमारे मस्तिष्क के निर्माण में प्रयुक्त न्यूरॉन्स के इस मकड़जाल का संबंध स्पाइनल कॉर्ड तथा स्नायुतंतुओं (nerves) द्वारा पूरे शरीर से होता है। मेरुदंड एवं स्नायुतंतुओं का निर्माण भी न्युरॉन्स द्वारा ही होता है। ये स्नायुतंतु हमारी सभी ज्ञानेंद्रियों, मांसपेशियों, ग्रंथियों आदि को मस्तिष्क से जोड़ते हैं और सूचना लेने-देने के काम में लगे रहते हैं। शरीर के बाहर एवं भीतर घटने वाली हर घटना की सूचना इन स्नायुतंतुओं द्वारा मस्तिष्क या मेरुदंड को दी जाती है। यहाँ इन सूचनाओं का संवर्धन (processing) होता है। काफ़ी समझने-बूझने,तर्क-वितर्क, खोज-बीन के बाद समुचित कार्यवाही का निर्णय लिया जाता है, फिर इस निर्णय को कार्यरूप देने के लिए अन्य विशेष स्नायुतंतुओं द्वारा सूचना मांसपेशियों अथवा ग्रंथियों तक प्रेषित कर दी जाती है।

मस्तिष्क में चलने वाली सृजन संबंधी क्रिया-कलापों को अच्छी तरह समझने के लिए आइए, इसके कम से कम इस कार्य से संबधित अवयवों के बारे में तो जान ही लें। वैसे तो इसके सभी अंश एक-दूसरे से न केवल संरचनात्मक, बल्कि कार्य-रूप से भी घनिष्टता पूर्वक जुड़े होते है, अत: इन्हें अलग-अलग कर देखना उचित नहीं है। फिर भी अध्ययन की सुविधा के लिए अग्र, मध्य एवं पश्च भागों में बाँटा जा सकता है।

अग्र भाग का मुख्य हिस्सा सेरिब्रम है, जो स्वयं दाएँ एवं बाएँ हिस्से में बँटा होता है। मस्तिष्क का अधिकांश भाग इसी से बना होता है। इसका आकार-प्रकार ही मस्तिष्क को अखरोटनुमा आकार देता है। इसकी बाहरी सतह लहरदार होती है तथा इन लहरों में कई गहरी दरारें होती है। ये दरारें सेरिब्रम के दोनों हिस्सों को ललाट की तरफ़ अवस्थित फ्रांटल, कान की तरफ़ अवस्थित टेंपोरल, पीछे की तरफ़ अवस्थित ऑक्सीपिटल एवं ऊपर की ओर अवस्थित पेराइटल जैसे भागों में सतही तौर पर बाँटती हैं। इनमें से टेंपोरल, ऑक्सीपिटल एवं पेराइटल, जिन्हें हम इनके पहले अक्षरों को मिला कर 'टॉप' की संज्ञा दे सकते हैं- मुख्य रूप से सूचना संग्रहण, संवर्धन एवं विश्लेषण के कार्य में दक्ष हैं। उदाहरण के लिए - टेंपोरल हिस्से में ध्वनियों को समझा-बूझा जाता है तो ऑक्सीपिटल में दृष्टि संबधी सूचनाओं को एवं पेराइटल में स्पर्श, गर्म, ठंडा, दर्द जैसी सूचनाओं के संग्रहण, संवर्धन एवं विश्लेषण का कार्य होता है।

फ्रांटल हिस्सा थोड़ा अलग और विशिष्ट है- जटिल विचारों की उत्पत्ति एवं उसके फलस्वरूप होने वाली कार्यवाहियों पर आंतरिक दृष्टि रखने से ले कर परिस्थितियों के अवबोधन एवं स्मृतियों को संजो कर रखना तथा उन्हें आवश्यकतानुसार ज्ञान पटल पर लाना इसी के कार्यक्षेत्र में आते हैं। सूचनाओं के संवर्धन के पश्चात लिए गए निर्णयों को मांसपेशियों अथवा ग्रंथियों द्वारा कार्य रूप में परिणित करने की ज़िम्मेदारी भी इसी की है। साथ ही, परिस्थतियों को समझ कर निर्णय लेने की क्षमता से ले कर बौद्धिक अंतर्दृष्टि, तार्किकता, भावनाओं की अभिव्यक्ति, इच्छा-शक्ति, व्यक्तित्व जैसे गुणों के सृजन एवं विकास में भी इसका मुख्य हाथ होता है। ध्यान देने की बात यह है कि रचनात्मक विचार भी यहीं जन्म लेते हैं। सेरिब्रम की ऊपरी सतह, जिसे सेरिब्रल कॉर्टेक्स की संज्ञा दी जाती है, ही ऐसी अधिकांश गतिविधियाँ का कार्यक्षेत्र है।

यह पूरा का पूरा सेरिब्रम मस्तिष्क के जिस भाग पर टिका रहता है उसे थैलमस कहते हैं। ज्ञानेंद्रियों से प्राप्त अधिकांश सूचनाएँ थैलमस से गुज़र कर ही सेरिब्रम तक पहुँचती हैं। थैलमस एवं मेरुदंड के बीच का सारा हिस्सा मस्तिष्क के तने ब्रेन-स्टेम का निर्माण करता है, जिसमें थैलमस के नीचे का हिस्सा हाइपोथैलमस, पूरा मध्य मस्तिष्क एवं पश्चमस्तिष्क को निर्मित करने वाले पॉन्स तथा मेड्युला जैसे अंश शामिल हैं। पॉन्स के पीछे की ओर पश्चमस्तिष्क का एक और भाग सेरिबेलम भी होता है, जिसे छोटा सेरिब्रम भी कहते हैं। इस तथाकथित तने के सभी अवयव परोक्ष या अपरोक्ष रूप से शरीर के विभिन्न क्रिया-कलापों के नियंत्रण से संबद्ध होते हैं। यथा हाइपोथैलमस भूख, प्यास, नींद, ताप, रक्तचाप आदि के नियंत्रण से लेकर कुछ हॉरमोन्स के स्राव के नियंत्रण में लगा रहता है, तो अन्य अवयव मुख्य रूप से अग्रमस्तिष्क के साथ मांसपेशियों के नियंत्रण में सहभागी होते हैं।

सेरिब्रम एवं ब्रेन-स्टेम के बीच होंठों के आकार वाला एक और तंत्र अवस्थित रहता है, जिसे लिंबिक तंत्र का नाम दिया गया है। कुंडलाकार रूप में फैला यह तंत्र तमाम स्नायु-योजकों द्वारा अपने ऊपर अवस्थित सेरिब्रम तथा नीचे अवस्थित ब्रेन-स्टेम से व्यापक रूप से जुड़ा होता है। चूँकि रचनात्मक कार्यों से इसका कुछ विशेष संबंध है, अत: इसके क्रिया-कलापों के बारे में थोड़ा-बहुत जान लेना आवश्यक है। इस तंत्र के आंतरिक सिरों पर स्नायु-कोशिकाओं के संग्रह से निर्मित, बादाम के आकार वाला एमिग्डाला होता है। लिंबिक तंत्र का यह हिस्सा हाइपोथैलमस के ऊपर अवस्थित होता है। यों समझ लें कि यह एमिग्डाला हमारे सुरक्षा-तंत्र का मज़बूत किला है। इसके विभिन्न अवयव भावनाओं की अभिव्यक्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आक्रामकता, आज्ञाकारिता, विनम्रता आदि जैसी भावनाओं की उत्पत्ति एवं अभिव्यक्ति यहीं से नियंत्रित होती है। रचनात्मक कार्य काफ़ी-कुछ भावनाओं से भी जुड़े होते हैं। ज़ाहिर है रचनात्मक कामों में इसकी भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस तंत्र का दूसरा महत्वपूर्ण अवयव है- हिप्पोकैंपस। ग्रीक भाषा में दरियाई घोड़े को हिप्पोकैंपस कहते हैं। लिंबिक तंत्र के इस हिस्से का आकार कुछ-कुछ दरियाई घोड़े से मिलता है। हिप्पोकैंपस लिंबिक-तंत्र के फूले हुए निचले होंठ का निर्माण करता है। लिंबिक-तंत्र का यह महत्वपूर्ण हिस्सा गंध एवं स्मृति से संबंधित संकेतों एवं इनसे जुड़े क्रिया-कलापों के निपटारे में लगा रहता है। स्मृतियों को आवश्यकतानुसार स्मृति पटल पर वापस लाने का ज़िम्मा भी काफ़ी-कुछ इसी हिस्से का काम है, ऐसा अनुमान लगाया जाता है। सामान्य जीवन में किसी चीज़ को सीखने एवं करने में स्मृति का क्या महत्व होता है, यह तो सभी को पता है। रचनात्मक कार्य से जुड़े सभी लोग स्मृति के महत्व को तो और अच्छी तरह जानते और समझते हैं। यादों के बल पर ही कल्पना का महल खड़ा होता है।

स्नायुतंत्र के इस जंगल की संरचनात्मक एवं कार्यकीय जटिलता को समझने-बूझने में मनोवैज्ञानिक, मनोचिकित्सक, न्युरॉलाजिस्ट, न्युरोसर्जन से लेकर मैग्नेटिक रिज़ोनेंस इमेजिंग़ (fMRI) विशेषज्ञ वर्षों से लगे हुए हैं। 'फंक्शनल मैग्नेटिक रिज़ोनेंस इमेजिंग'' (fMRI) की नई विधा ने पिछले एक दशक से इस कार्य को आसान कर दिया है। (लगे हाथों fMRI के बारे में थोड़ा-बहुत जान लेने में कोई हर्ज़ नहीं है। MRI वैसे तो अब काफ़ी लोकप्रिय नाम है और सभी जानते हैं कि इस विधा द्वारा शरीर के उन अंगों के चित्र प्राप्त किए जा सकते हैं जिनका निर्माण कोमल ऊतकों द्वारा होता है, जैसे कि मस्तिष्क। fMRI जैसी विशिष्ट विधा द्वारा किसी कार्य के संपादन के समय मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों की स्नायु कोशिकाओं में होने वाले विद्युतीय परिवर्तनों का आकलन, रक्त के प्रवाह में होने वाले परिवर्तनों द्वारा किया जा सकता है) इसके द्वारा अब हमें धीरे-धीरे इस बात का ज्ञान हो रहा है कि किस कार्य के समय हमारे मस्तिष्क का कौन-सा हिस्सा कितना सक्रिय रहता है। सबसे बड़ी बात जो समझ में आ रही है, वह यह है कि न्युरॉन्स का यह तथा-कथित जंगल अपने-आप में पूर्ण रूप से व्यवस्थित है। यह और बात है कि हम इसकी कार्य-प्रणाली को आज भी पूरी तरह नहीं समझ पाए हैं।

अपने मस्तिष्क एवं स्नायुतंत्र के बारे में थोड़ा बहुत जान लेने के बाद अब समय आ गया है कि इस आलेख के असली मुद्दे यानी रचना-प्रकिया की प्रकिया को समझने का प्रयास करें। आगे बढ़ने से पहले यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि यहाँ रचना का तात्पर्य किसी भी सृजनात्मक कार्य से है। वैसे तो सृजनात्मकता एक सामान्य व्यक्ति के जीवन का भी अभिन्न अंग है और सोचना, समझना, कल्पना करना, कल्पना को साकार रूप देना - इस क्रिया के ही अलग-अलग पहलू हैं, लेकिन साहित्य, कला, विज्ञान आदि के क्षेत्र से जुड़े लोगों में एक अलग प्रकार की सृजनात्मक प्रतिभा एवं मेधा होती है। इस विशिष्ट श्रेणी में साहित्यकारों के साथ-साथ चित्रकार, रंगकर्मी, संगीतकार, वास्तुविद्, शिल्पकार, अभिनेता आदि से लेकर वैज्ञानिक तक सभी शामिल हैं। सृजनात्मकता का आयाम असीम है, फिर भी यदि इसे शब्दों में बाँधने का प्रयास किया जाय तो यह कुछ-कुछ ऐसा होगा- सृजनात्मकता हमारी वह क्षमता है जिसके बल हम कुछ ऐसा कर पाते हैं जो न केवल नया, मौलिक और अनूठा ही हो, बल्कि समुचित एवं उपयोगी भी हो।

सूचना-संवर्धन सृजनात्मकता की आधारभूत प्रकिया है। इस प्रकिया के फलस्वरूप हमें परिस्थिति का संज्ञान या यों कहें कि बोध होता है। तमाम अनुसंधानों का निचोड़ यह है कि सृजनात्मकता के पीछे व्यक्ति के संज्ञान (cognition) यानी बोध क्षमता की मुख्य भूमिका होती है। इस संज्ञान क्षमता के पीछे व्यक्ति की उस क्षमता का बड़ा हाथ होता है जिसके बल पर, स्मृति का वह हिस्सा जिसे उस समय स्मरण पटल पर लाया जा सकता हो, सामने खड़ी समस्या या उत्पन्न विचार पर अनवरत ध्यान केंद्रित रह सकता हो, प्राप्त संज्ञान में लचीलापन बना रह सकता हो तथा औचित्यपूर्ण निर्णय लिया जा सकता हो। चूँकि सेरिब्रम का फ्रांटल-कार्टेक्स-खंड और उसमें भी उसका सबसे अगला हिस्सा प्रीफ्रांटल-कार्टेक्स इन सभी कार्य-कलापों का मुख्य क्षेत्र होता है, अत: सृजनात्मकता का इस खंड से गहरा संबंध है, वैज्ञानिकों का ऐसा सोचना स्वाभाविक एवं सर्वथा उचित है।

बोध या संज्ञान के लिए पर्यावरण से प्राप्त सूचनाएँ अत्यंत महत्वपूर्ण होती हैं। इन सूचनाओं के संग्रहण का कार्य सेरिब्रम के तथाकथित टॉप में होता है। हमारे पास सूचनाएँ प्राप्त करने के सीमित साधन हैं। ये सूचनाएँ प्रकाश, ध्वनि, रासायनिक, यांत्रिक, ताप आदि सीमित ऊर्जा-रूपों ही में हमारे पास पहुँचती हैं। इन सूचना-संकेतो का ग्रहण, उनका संवर्धन एवं अधिकांश भंडारण टॉप में ही होता है। दीर्घ-कालिक स्मृति का भंडारण भी यहीं होता है। इन सूचना-संकेतों के संवर्धन के समय जो संगणना होती है, उसका सम्मिश्रित रूप स्वयं में नवीनता लिए होता है। यह नवीनता कौतुहलयुक्त होती है और सृजन-प्रक्रिया की जन्मदात्री है। इस नवीनता युक्त सूचना सम्मिश्रण पर अनवरत ध्यान केंद्रित रखना सृजनात्मकता की एक और आवश्यकता है। हालाँकि यह कार्य सूचना संकेतों के चयनात्मक संग्रहण के रूप में टॉप में ही प्रारंभ हो जाता है, लेकिन इस पर साभिप्राय ध्यान बनाए रखने का ज़िम्मा प्रीफ्रांटल का है। सृजनात्मक कार्य के संपादन के लिए इन सूचनाओं के नवीनतायुक्त समिश्रण पर अनवरत ध्यान देते रहना आवश्यक है क्योंकि इसी के कारण उस सृजनात्मक कार्य में काम आने वाली स्मृतियों को स्मृतिपटल लाना और उसे कार्य की समाप्ति तक वहाँ बनाए रखना संभव होता है। यह कार्य भी इसी प्रीफ्रांटल में संपन्न होता है। इस स्मृति को तात्कालिक सृजनात्मक कार्य के संदर्भ में कार्यकारी-स्मृति की संज्ञा दी जा सकती है। इसमें तात्कालिक सूचना संबंधी स्मृति के साथ-साथ उससे जुड़े पूर्व अनुभवों की स्मृति को भी स्मृतिपटल पर लाया जाता है। प्राप्त हुई सूचनाओं के समीक्षात्मक विश्लेषण में ये स्मृतियाँ एवं पूर्व अनुभव संशोधक का कार्य करते हैं, साथ ही विचार मंथन की इस प्रक्रिया के संवर्धन में भावनाओं का भी काफ़ी दखल होता है। विचार-संवर्धन की इस प्रक्रिया का मुख्य कार्य-क्षेत्र भी यही प्रीफ्रांटल ही है। विचारों के परिपक्वन के बाद सृजनात्मक सोच भी यहीं जन्म लेती है।

पैराग्राफ़ फिर से पढ़ लीजिए। अब सृजनात्मक प्रक्रिया को समझना-बूझना कोई रसगुल्ला खाना तो है नहीं। आगे लिखने के पहले पीछे का मुझे भी बार-बार पढ़ना पड़ रहा है। थोड़ी तकलीफ़ तो आप को भी उठानी ही पड़ेगी। अगर आप फ्रेश हो गए हों तो आगे बढा जाय. . .

वैज्ञानिकों की खोज से ऐसा प्रतीत होता है कि सृजनात्मक सोच की दो दिशाएँ होती हैं-
1. सुविचारित (intentional), 2. स्वैच्छिक (spontaneous)। सुविचारित सृजनात्मकता में सचेतन मन की मुख्य भूमिका होती है तो स्वैच्छिक सृजनात्मकता मे अवचेतन मन की। सुविचारित सृजन-प्रक्रिया में अनुभवों एव स्मृतियों का विशेष अनुदान होता है तो स्वैच्छिक सृजन-प्रकिया में भावनाओं का। दोनों में ही अंतर्दृष्टि की आवश्यकता पड़ती है, जो बोधगम्यता का परिणाम होती है। बोधगम्यता एवं भावनात्मकता के लिए सुविचारित-सृजनात्मक-सोच तथा स्वैछिक-सृजनात्मक-सोच की दिशा में कुछ सीमा तक मस्तिष्क के अलग-अलग अवयवों का उपयोग होता है। फलत: दोनों में अलग-अलग प्रकार की अंतर्दृष्टि (insight) मिलती है, जिसका परिणाम नई-नई अवधारणाओं के जन्म के रूप में दिखाई पड़ता है। ये अवधारणाएँ नवसृजन की राह को प्रशस्त करती हैं।

पहले प्रकार का सृजन यथार्थ के धरातल पर अनुभवों एवं स्मृतियों के बल होता है तो दूसरे में भावनाओं का ज़ोर होने के कारण, कल्पनाओं का बोल-बाला रहता है। अलग-अलग होते हुए भी इनमें पूर्ण अलगाव नहीं किया जा सकता। ये एक दूसरे के समांतर कार्य करती हैं एवं एक दूसरे को प्रभावित भी करती हैं। अधिकांश सृजनात्मक कार्य इन दोनों का मिश्रित रूप ही होते हैं, लेकिन किसी में यथार्थ का बोल-बाला होता है तो किसी में कल्पना का। यथा- साहित्यिक सृजन में भावनात्मक सोच का बोल-बाला होता है, तो एक वैज्ञानिक सृजन में यथार्थ का। लेकिन न तो साहित्यिक सृजन में यथार्थ को पूरी तरह नकारा जा सकता है और न ही वैज्ञानिक सोच में कल्पना को। जिस प्रकार यथार्थ के पुट के बिना साहित्य उतना प्रभावशाली नहीं बन पाता, उसी प्रकार नए एवं क्रांतिकारी आविष्कारों के लिए कल्पना का महत्व सर्वविदित है। यह कल्पना का घोड़ा ही है जो नवीन एवं क्रांतिकारी सृजन करवाता है। पूर्व ज्ञान एवं अनुभव तो ऐसे सृजन के रास्ते में अक्सर रोड़े ही अटकाते हैं। किसी में चेतना का पक्ष ज़्यादा प्रभावी होता है तो किसी में अवचेतना। इसी के अनुरूप वह पहले या दूसरे प्रकार के सृजनकार्य में प्रतिभावान होता है।

कल्पनालोक में डूब कर कुछ नवीन एवं क्रांतिकारी सृजन कार्य करने लगता है, इसका उसे स्वयं भी पता नहीं लगता। साहित्यिक सृजन में मदिरा या फिर अन्य मादक पदार्थों के सेवन का चलन अक्सर देखा गया है जो व्यक्ति की चेतना को मुख्य बिंदु से थोड़ा भटका सकें। या फिर किया जाने वाला सृजनात्मक कार्य स्वयं ही नशेदायक होता है और उसमें डूबा व्यक्ति कल्पनासागर में गोते लगाता हुआ सृजनात्मक कार्य में लिप्त रहता है। विज्ञान जगत में भी ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जिसमें त्वरित सोच के परिणाम स्वरूप आश्चर्यजनक आविष्कार न हुए हों। न्यूटन द्वारा गिरते सेब को देख कर गुरुत्वाकर्षण के नियम खोजने की प्रेरणा पाने वाली घटना या फिर केकुले द्वारा अर्धनिद्रा की अवस्था में साँपनुमा आकृति को गोल-गोल घूमते देख बेंजीन जैसे रसायन की संरचनात्मकता के बारे में साइक्लिक आकार की परिकल्पना को समझ लेने की घटना, आदि ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं। लेकिन विज्ञान के क्षेत्र में किए गए अधिकांश आविष्कार सुविचारित सृजन के क्षेत्र में आते हैं जिसमें व्यक्ति के पास उस विषय का आधारभूत ज्ञान अवश्य होता है, लेकिन इसके साथ लीक से हट कर सोचने की क्षमता भी अवश्य होती है। साहित्य एवं कला के क्षेत्र में भी काफ़ी-कुछ सोच-समझ कर ही किया जाता है।

आवश्यक है। प्रीफ्रांटल कार्टेक्स के इस अंश का ऊपरी एवं किनारे का भाग कार्यकी की दृष्टि से इसके निचले एवं मध्य अवस्थित भाग से अलग होता है। ऊपरी एवं किनारे के भाग का बायाँ अंश स्मृति के पुनर्जागरण से संबद्ध होता है, तो दायाँ भाग समस्या की ओर अनवरत ध्यान बनाए रखने की क्रिया से संबद्ध होता है। यह भाग सेरिब्रम के टॉप से यथेष्ठ रूप से जुड़ा होता है अर्थात वहाँ से प्राप्त सूचनाओं से इसका सीधा संबंध है। निचले एवं मध्य अवस्थित भाग का लिंबिक तंत्र, विशेषकर एमिग्डाला से घनिष्ठ रूप से होता है। संभवत: यह भाग इस तथ्य का आकलन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है कि अभिव्यक्त भावनाओं का स्वयं पर क्या अनुकूल अथवा प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। यह आकलन तर्कसंगत निर्णय लेने में सहायक होता है। टॉप एवं एमिग्डाला से घनिष्ठ रूप से संबद्ध होने के कारण प्रीफ्रांटल कॉर्टेक्स दोनों प्रकार की सृजन-प्रक्रिया में संतुलन एवं संयोजन बनाए रखने में संलग्न रहता है।

इतना ही काफ़ी है। कारण, इस संबंध में बहुतेरी जानकारियाँ अभी भी आधी-अधूरी हैं और बहुत कुछ परोक्ष रूप से किए प्रयोगों पर आधारित एवं अनुमानित हैं। इस दिशा में अनुसंधान कार्य अभी भी चल ही रहा है। वैसे भी गाड़ी चलाने के लिए कोई ज़रूरी थोड़े ही है कि इंसान मैकेनिक बन जाय। वो है न कहावत- थोड़ा कहना, ज़्यादा समझना। जितना जान लिया, उतना ही समझ लिया तो बहुत है। ज्ञान का कोई अंत है क्या? जितना मेरी समझ में आया और एक आम इंसान की उत्सुकता को मिटाने के लिए जितना ज़रूरी समझा, उतना ही देने का मेरा प्रयास रहा है।

आप की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है




2008/06/04

हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली औरउसके जुझारू सैनिक-8[अन्तिम भाग]

हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली औरउसके जुझारू सैनिक--[अन्तिम भाग]

------------------------------------------------------------
कल के अंक से आगे .....

किस्से और भी हैं एवं उनसे जुड़ी बारीकियाँ भी और हैं! कहाँ तक सुनाएँ? आइए यहीं इस कथा का अंत किया जाए। भला किस महाभारत या स्टार-वार से कम रोमांचक है यह जीवाणुओं और हमारी सुरक्षासेना का युद्ध? महाभारत तो अट्ठारह दिन में समाप्त हो गया स्टारवार के एपीसोड्स भी कुछ ही समय में समाप्त हो जाते हैं, लेकिन यह युद्ध तो आजीवन चलता रहता है। इस युद्ध में अक्सर हम ही जीतते हैं परंतु यदा-कदा जीवाणु भी जीत जाते हैं। प्रकृति प्रदत्त इस प्रतिरक्षा तंत्र रूपी इस महावरदान को बनाए रखना एवं इसे और भी मज़बूती देना मारा धर्म है। ताज़े फल-फूल एवं हरी-भरी सब्ज़ियों से भरपूर संतुलित भोजन के साथ नियमित जीवन ही इस तंत्र को मज़बूत रखने का सर्वोत्तम उपाय है। एक शक्तिशाली सेना के लिए यह आवश्यक है कि इसे अच्छे खान-पान के साथ लगातार युद्ध का प्रशिक्षण मिलता रहे। स्वच्छता के साथ जीवन बिता कर हम रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं एवं उनके द्वारा उत्पन्न रोगों से बच तो अवश्य सकते हैं लेकिन यह तरीका हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को कमज़ोर करता है। इसमें मज़बूती जीवाणुओं का सामना करने से ही आती है। यही इनका युद्धाभ्यास है। स्वच्छता अच्छी बात है, परंतु इसकी अति भी बीमारियों को निमंत्रण देती है। जब तक आप स्वच्छ वातावरण में रह रहे हैं तब तक तो ठीक है लेकिन जाने-अनजाने कभी यदि आप का सामना गंदगी से हो गया तो आप की ख़ैर नहीं।
आप के प्रतिरक्षा तंत्र में इनका सामना करने की क्षमता कम हो चुकी होती है और आप को बीमारियाँ घेर सकती हैं। आज कल एलर्जी आदि जैसी बीमारियाँ बढ़ रही हैं, विशेषकर बच्चों में। यह सब कमज़ोर पड़ते प्रतिरक्षा तंत्र के कारण ही है।
ऐसा मेरा नहीं, अमेरिकी वैज्ञानिकों का मानना है। युनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन के हेल्थ सिस्टम के वैज्ञानिक मार्क मैक्मोरिस, एम.डी. एवं उनके सहयोगिया का तमाम अनुसंधान के बाद ऐसा कह रहे हैं। अपने देश में तो ख़ैर, धूल-मिट्टी में खेलकर बड़े होने को सर्वोत्तम माना जाता है। शरीर हर दृष्टि से मज़बूत रहता है। इसका मतलब यह नहीं कि सब कुछ प्रकृति पर छोड़ दें एवं बच्चों को धुल-मिट्टी ओर गंदगी में हमेशा लोट लगाने दें या फिर चौबीसों घंटे बीमारों की संगति में छोड़ दें। उन्हें स्वच्छता से रहना अवश्य सिखाएँ एवं उनका टीकाकरण भी अवश्य कराएँ। लेकिन थोड़ा-बहुत धूल-मिट्टी में अन्य बच्चों के साथ खेलने देने में कोई हर्ज़ नहीं है। तरह-तरह के बच्चों एवं धूल-मिट्टी का अर्थ है, तरह-तरह के जीवाणुओं के संपर्क में आना तथा उनसे मुकाबला करने की शक्ति अर्जित करना। इस प्रकिया में हो सकता है वे थोड़ा-बहुत बीमार भी पड़ें लेकिन इससे घबराने की ज़रूरत नहीं है अंतत: उनका प्रतिरक्षा तंत्र मज़बूत ही होगा। इति।
-डॉ.गुरु दयाल प्रदीप

हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली औरउसके जुझारू सैनिक-7

हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली औरउसके जुझारू सैनिक-७

----------------------------------------------------------


जैसा कि पहले ही बताया गया है, टी लिंफोसाइट्स की प्रतिरक्षात्मक क्रियाविधि अलग होती है। प्राथमिक परिमार्जन के पश्चात ये कई रूप धारण करते हैं। इनमें एक रूप होता है, टी हेल्पर कोशिकाओं का। ये कोशिकाएँ तब तक निष्क्रिय रहती हैं जब तक एंटीजेन प्रजेंटिंगकोशिकाएं एंटीजेन-विशेष को पमिार्जित कर इनके सम्मुख पस्तुत नहीं करतीं।एक बार सक्रिय हो जाने के बाद या तो ये बी लिंफोसाइट्स को सक्रिय कर उन्हें विभाजन एवं एंटीबॉडी के उत्पादन के लिए प्रोत्साहित करते हैं ह्यइसकी चर्चा विस्तार से पहले भी की जा चुकी है हृ या फिर टी लिंफोसाइट्स के एक अन्य प्रकार टी साइटोटॉक्सिक कोशिकाओं को सक्रिय कर उनके विभाजन को प्रोत्साहित कर उसी प्रकार के अनगिनत कोशिकाओं के समूह (क्लोन्स) को उत्पादन में सहायक होते हैं। इन सक्रिय टी साइटोटॉक्सिक कोशिकाओं के क्लोन जिन्हें टी किलर सेल्स के नाम से भी जाना जाता है, अब लिंफनोड्स से निकल कर पूरे शरीर में घूमते हैं एवं ऐसी रोगग्रस्त कोशिकाओं की खोज कर तरह-तरह से नष्ट करने में लग जाते हैं जिनके अंदर उस प्रकार के बैक्टीरिया या वाइरस पनप रहे हों जिनसे उत्पादित एंटीजेन को परिमार्जित कर प्रजेंटिंग कोशिकाओं ने इन्हें सक्रिय किया था। रोगग्रस्त कोशिकाओं के संपर्क में आने के बाद ये किलर सेल परफोरिन एवं ग्रैन्युलाइसिन जैसे कोशिका-विष का उत्पादन करते हैं। ये विषैले रसायन इन रोगग्रस्त कोशिकाओं के आवरण में छिद्र बनाते हैं। इन छिद्रों से इन कोशिकाओं में पानी एवं तरह-तरह के ऑयन्स भरने लगते हैं जिसके कारण ये कोशिकाएँ फट कर नष्ट होने लगती हैं। जब रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं को पालने वाली कोशिकाएँ ही नष्ट हो जाती हैं तो भला जीवाणु रहेंगे कहाँ? वे भी समाप्त हो जाते हैं।
पिछले अंक में चलते-चलाते पूरक तंत्र की चर्चा की गई थी। जैसा कि उस समय ही इंगित किया गया था- यह तंत्र नाना प्रकार के छोटे-छोटे प्रोटीन्स से मिल कर बनता है। मुख्य रूप तो नैसर्गिक सुरक्षा प्रणाली की सहायता करता है परंतु आवश्यकता पड़ने पर यह अर्जित सुरक्षा प्रणाली की सहायता हेतु भी सदैव तत्पर रहता है। इस पूरक सेना में शामिल प्रोटीन्स का उत्पादन मुख्य रूप से हमारी लीवर कोशिकाओं में होता है तत्पश्चात ये रक्त एवं अन्य ऊतक-द्रव में ये निष्क्रिय ज़ाइमेजेन एंज़ाइम्स के रूप में भ्रमण करते रहते हैं या फिर अन्य कोशिकाओं से मेंब्रेन रिसेप्टर्स के रूप जुड़ जाते हैं। उत्पादन के पश्चात मनुष्य शरीर में आजीवन इसी प्रकार बने रहते हैं इनमें कोई भी परिवर्तन संभव नहीं है। इनमें से कुछ तो ऐसे होते हैं जो एंटीबॉडी-विशेष के संपर्क में आने पर ही सक्रिय होते है एवं कुछ ऐसे होते हैं जो जीवाणुओं द्वारा उत्पादित एंटीजेंस के संपर्क में आने पर ही सक्रिय हो जाते हैं। इन प्रोटीन्स के कुछ अणुओं का इस प्रकार सक्रिय होना ही पर्याप्त है। इसके बाद तो ये सक्रिय अणु रसायनिक प्रतिक्रियाओं की ऐसी शृंखला प्रारंभ करते हैं कि आनन-फानन में इसी प्रकार के हज़ारो-लाखों प्रोटीन-अणु सक्रिय रूप धारण कर लेते हैं एवं तुरंत एक ज़बरदस्त प्रतिरोधक कार्रवाई का बिगुल बज जाता है। ये सक्रिय प्रोटीन्स या तो जीवाणुओं के आवरण झिल्ली में छेद बनाने लगते हैं जिससे उनके अंदर पानी एवं अन्य तरल घुसने लगते हैं, फलस्वरूप ये जीवाणु फट कर नष्ट होने लगते हैं या फिर ये सक्रिय प्रोटींस जीवणुओं के आवरण से चिपक कर उनके चारों तरफ़ ऐसी तह बनाते हैं जिससे रक्त की भक्षक कोशिकाओं के लिए उनका भक्षण आसान हो जाता है।


[जारी है.......]

हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली औरउसके जुझारू सैनिक-6

हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली औरउसके जुझारू सैनिक-६

-------------------------------------------------------------


kal ke अंक से आगे....


बी लिंफोसाइट्स भी दो प्रकार के होते हैं। एक तो वे जो अपने संपर्क में आए एंटीजेन-विशेष के विरुद्ध प्रतिरक्षात्मक कार्रवाई के लिए सीधे तौर पर सक्रिय हो जाते हैं एवं विशिष्ट प्रकार के ग्लाइकोप्रोटीन्स (इन ग्लाइकोप्राटीन्स को इम्युनोग्लोबिन्स या फिर एंटीबॉडीज़ के नाम से भी जाना जाता है) का उत्पादन करने लगते हैं और दूसरे वे जिन्हें सक्रिय करने के लिए विशेष प्रकार के टी हेल्पर लिंफोसाइट्स सेल्स की सहायता की आवश्यकता होती है। पहले प्रकार के बी लिंफोसाइट्स की संख्या बहुत कम होती है। अधिकांश बी लिंफोसाइट्स सक्रियता के लिए टी सेल्स पर आश्रित ही होते हैं। अस्थिमज्जा में बनने वाले बी लिंफोसाइट्स एक प्रकार से निष्क्रिय एवं अनुभवहीन कोशिकाएँ होती हैं। जब ये कोशिकाएँ परवर्ती लिंफ्यॉड अंगों में आती हैं तो घुलनशील प्रकार के एंटीजेन-विशिष्ट को स्वयं में आत्मसात कर लेती हैं। यदि ये बी सेल्स पहले प्रकार के हैं तो इतना काफ़ी है। ये एंटीजेंस ही इन कोशिकाओं को सक्रिय कर देते हैं और ये एंटीबॉडी का उत्पादन करने लगती हैं। और यदि ये दूसरे प्रकार के होते हैं, तो ये आत्मसात किए गए एंटीजेन को मेजर हिस्टोकांपैटैबिलिटी कॉमप्लेक्स क्लास २ प्रकार के विशेष प्रोटीन से युक्त कर परिमार्जित करते हैं एवं इस पुन: अपने आवरण पर स्थापित कर देते हैं। यह कॉम्लेक्स समान संरचना वाले विशेष टी हेल्पर कोशिकाओं द्वारा पहचान लिए जाते हैं। टी हेल्पर सेल्स इनसे जुड़ कर साइटोकाइन्स प्रकार के रसायन का उत्पादन करते हैं जिसके फलस्वरूप बी लिंफोसाइट्स सक्रिय हो जाते हैं एवं विभाजित होने के साथ इस एंटीजेन विशेष के विरुद्ध एंटीबॉडी संश्लेषित करने वाले प्लाज़्मा सेल्स (इफेक्टर सेल्स) में परिवर्तित हो जाते हैं। इनमें से कुछ मेमोरी सेल्स में भी परिवर्तित हो जाते हैं। दूसरी बार उसी प्रकार के एंटीजेन का सामना होने पर ये त्वरित गति से एवं पहले की तुलना में काफ़ी तीखी प्रतिकिया व्यक्त करते हैं फलस्वरूप उन्हें उत्पादित करने वाले जीवाणुओं का तुरंत सफ़ाया हो जाता है।
चाहे ये बी लिंफोसाइट्स प्रहले प्रकार के हों या दूसरे प्रकार के, इनके द्वारा प्रतिरक्षा का तरीका एंटीबॉडी उत्पादन के माध्यम से ही होता है। उत्पादन के पश्चात या तो ये एंटीबॉडीज़ स्वतंत्र रूप से प्लाज़्मा में विचरण करते रहते हैं या फिर कोशिकाओं के आवरण से युक्त हो जाते हैं। इन एंटीबॉडीज़ या इम्युनोग्लाबिन्स की संरचना में एमीनो एसिड्स से निर्मित चार पॉलीपेप्टाइड शृंखलाओं का उपयोग होता है, जिनमें दो लंबी एवं भारी शृंखलाएँ होती हैं और दो छोटी तथा हल्की शृंखलाएँ होती हैं। अंग्रेज़ी के वाई अक्षर' के आकार में व्यस्थित इन अणुओं के शिखर अंश की संरचना इस प्रकार की होती है कि यहाँ एंटीजेन-विशेष के अणु चाभी-ताले के समान एक-दूसरे से युक्त हो कर निष्प्रभावी हो जाते हैं। एंटीजेंस के निष्प्रभावी होते ही जीवाणुओं के सफ़ाये का रास्ता खुल जाता है। या तो ये जीवाणु एक दूसरे से चिपक कर थक्के के रूप में नष्ट होने लगते हैं या फिर इनके ऊपर ऐसी तह बनने लगती है जिसके बाद भक्षक कोशिकाओं द्वारा इनका भक्षण आसान हो जाता। इसके अलावा ये एंटीबॉडीज़ जीवाणुओं द्वारा श्रावित विषाक्त रसायनों को निष्क्रिय करने में भी सहायक होते हैं।

[जारी है........]

-डॉ.गुरु दयाल प्रदीप

हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली औरउसके जुझारू सैनिक-5

हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली औरउसके जुझारू सैनिक-५
---------------------------------------------------------

कल के अंक से आगे........कैसे होता यह सब? आइए, अब इसे समझने का प्रयास किया जाए।
सामान्यतया एक स्वस्थ मनुष्य में लगभग बीस खरब लिम्फोसाइट्स होती हैं एवं इनका उत्पादन मुख्य रूप से हमारी अस्थिमज्जा में होता है। जिस प्रकार सेना के विभिन्न अंगों एवं दस्तों का प्रशिक्षण अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीके से होता है, इसी प्रकार उत्पादन के बाद कुछ लिम्फोसाइट्स का प्रारंभिक प्रशिक्षण, परिमार्जन एवं परिपक्वन तो अस्थिमज्जा में ही होता है एवं बाकी को थाइमस नामक ग्रंथि में भेज दिया जाता है। अस्थिमज्जा में प्रशिक्षित, परिमार्जित एवं परिपक्वित होने वाले लिम्फोसइट्स को बी लिम्फोसाइट्स एवं थाइमस वाले को टी लिम्फोसाइट्स नाम दिया गया है। इन प्राथमिक लिंफ़्वॉयड अंगों में परिपक्वन के बाद इन्हें लिम्फ़ऩोड्स, स्प्लीन एवं टांसिल जैसे परवर्ती लिंफ्वॉयड अंगों में भेज दिया जाता है, जहाँ जीवाणुओं एवं उनसे उत्पादित विशिष्ट रसायनों एंटीजेंस का सामना करते हुए इनकी संख्या में वृद्धि होती है एवं एंटीजेन-विशिष्ट से निपटने के लिए इनमें सक्रियता आती है।यह प्रणाली तभी सक्रिय होती है जब इसका सामना जीवाणु-विशेष या फिर उनके एंटीजेन-विशेष से होता है। वास्तव में ये एंटीजेंस केवल प्रोटीन या फिर प्रोटीनयुक्त अन्य रसायनों के बड़े अणु होते हैं एवं इनका निर्माण शरीर की अपनी कोशिकाएँ भी करती हैं तथा जीवाणुओं की कोशिकाएँ भी। इन बी एवं टी लिंफोसाइट्स में यह अद्भुत क्षमता होती है कि ये इन बाहरी एंटीजेंस को अपने शरीर की कोशिकाओं द्वारा उत्पादित स्व-एंटीजेंस से अलग कर तुरंत पहचान लेती हैं एवं उन्हीं के विरुद्ध प्रतिरोधक कार्रवाई करती हैं। ऐसा इस लिए संभव हो पाता है क्योंकि हरेक एंटीजेन के भाग-विशेष में अणुओं-परमाणुओं का ऐसा संयोजन होता है जो इन्हें विशिष्ट पहचान देता है। एंटीजेंस के इन विशिष्ट अंशों को एंटीजेनिक डिटर्मिनेंट्स की संज्ञा दी गई है। इन्हीं एंटीजेनिक डिटर्मिनेंट्स को ये लिंफोसाइट्स अपने द्वारा उत्पादित एंटीबॉडी-विशेष या फिर अपने बाहरी सतह पर अवस्थित रिसेप्टर-विशेष की मदद से तुरंत पहचान लेते हैं एंव उनके विरुद्ध प्रतिरक्षात्मक कार्रवाई प्रारंभ कर देते हैं। निश्चय ही नाना प्रकार के विदेशी एंटीजेंस की पहचान के लिए नाना-प्रकार के एंटीबॉडीज़ उत्पादित करने वाले एवं नाना प्रकार के एंटीजेन-रिसेप्टर से युक्त लिंफोसाइट्स की आवश्यकता पड़ती है।

हालाँकि बी एवं टी लिंफोसाइट्स अर्जित प्रतिरक्षा तंत्र के ही हिस्से हैं और एक दूसरे से संबद्ध भी हैं फिर भी इनके काम करने का तरीका अलग-अलग होता है। बी लिंफोसाइट्स एंटीजेन-विशेष को उसी प्राकृतिक रूप में पहचाने की क्षमता रखते हैं। यह क्षमता इनके बाहरी सतह पर अवस्थित बी सेल रिसेप्टर्स या फिर विशेष प्रकार के इम्युनोग्लोबिन्स की उपस्थिति के कारण होती है। टी लिंफोसाइट्स एंटीजेंस को उनके प्राकृतिक रूप में नहीं पहचान सकते। ये केवल परिमार्जित एंटीजेंस की ही पहचान कर सकते हैं। यह परिमार्जन मुख्य रूप से डेंड्राइटिक, बी या फिर मैक्रोफेजेज़ कोशिकाओं द्वारा किया जाता है। इसी लिए इन कोशिकाओं को एंटीजेन प्रजेटिंग कोशकाओं के नाम से भी जाना जाता है।


[जारी है.....]

2008/06/03

हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली औरउसके जुझारू सैनिक-4

हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली औरउसके जुझारू सैनिक-4
----------------------------------------------------------

पिछले अंक में आप का परिचय आप की सुरक्षा प्रणाली के न्युट्रोफिल्स, मोनोसाइट्स, एवं नेचुरल किलर सेल्स जैसे उन योद्धाओं से कराया गया था जो नैसर्गिक तंत्र का हिस्सा हैं। ये हमारे जन्म से ही रक्षा-कार्य में संलग्न रहते हैं। न इन्हें किसी प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है और न ही इन्हें किसी हरबा-हथियार से सुसज्जित करने की। ये योद्धा सभी शत्रुओं के साथ समभाव रखते हैं यानि उनमें अंतर नहीं कर पाते। सभी पर समान भाव से आक्रमण करते हैं। मोटे तौर पर कह सकते हैं कि ये ज़रा कम बुद्धि के होते हैं। गनीमत है, बल्कि आप इनका एहसान मानिए कि इनमें कम से कम अपने-पराए का भेद करने की तमीज़ होती है वर्ना दुश्मन तो दुश्मन, आप के शरीर की अपनी कोशिकाओं को भी ये खा-पी कर बराबर कर देते।

इन शूरमाओं के रहते हुए भी आप पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं। दुश्मन बड़े ही चालाक होते हैं। बड़ी आसानी से इन शूरमाओं को धता बता देते हैं। ऐसे चालाक दुश्मनों से निपटने के लिए ही प्रकृति ने हमें अर्जित सुरक्षा प्रणाली से लैस कर रखा है। लिंफोसाइट्स इस सुरक्षा प्रणाली के प्रमुख योद्धा हैं। न्युट्रोफिल्स एवं मोनोसाइट्स के समान ये भी एक प्रकार के ल्युकोसाइट्स ही हैं। बस इनके काम करने का तरीका अलग और बुद्धिमत्तापूर्ण होता है। इनमें अपने - पराए की विभेदक क्षमता उच्चकोटि की होती है। न केवल ये आक्रमक जीवाणुओं एवं उनसे श्रावित रसायनों की पहचान आसानी से कर लेते हैं बल्कि उन जीवाणुओं या फिर अन्य बाहरी रसायनिक पदार्थों के अणुओं में भेद कर पाने की क्षमता भी इनमें होती है। साथ ही ये यह भी सुनिश्चित करते हैं कि शरीर की अपनी कोशिकाओं एवं उनसे श्रावित रसायनों पर किसी भी प्रकार की प्रतिरक्षात्मक कार्रवाई न हो और उन्हें किसी प्रकार की हानि न पहुँचे। यही नहीं, एक बार किसी जीवाणु या उनके द्वारा श्रावित रसायन का सामना कर लेने के पश्चात इनमें उन्हें याद रखने एवं भविष्य में दुबारा सामना होने पर तुरंत पहचान लेने की भी क्षमता होती है, साथ ही उनसे किस प्रकार निपटा जाना चाहिए, यह भी इन्हें याद रहता है। यही कारण है कि शरीर में किसी जीवाणु-विशेष का आक्रमण होने पर इस प्रणाली द्वारा की गई जवाबी कार्रवाई त्वरित एवं प्रभावी होती है।

कैसे होता यह सब? अगले अंक में इसे समझने का प्रयास किया जायेगा .

तब तक, अभी तक के लेखों पर आप की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

धन्यवाद.


2008/05/31

हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली और उसके जुझारू सैनिक-3

हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली औरउसके जुझारू सैनिक-३
--------------------------------------------------------


जैसा मैंने कल के अंक में कहा था....आइए, पहले इस अंक में नैसर्गिक तरीक़ों की जाँच पड़ताल कर ली जाए, फिर अगले अंक में अर्जित सुरक्षा प्रणाली (AQUIRED) पर बातचीत की जाएगी।
जैसा कि पहले भी उल्लेख किया गया है, नैसर्गिक सुरक्षा प्रणाली के सभी अवयव निर्विश्ष्टि प्रकार के होते हैं अर्थात ये रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं अथवा अन्य हानिकारक तत्वों के (जिनका प्रवेश शरीर में बाहर से होता हो) खिलाफ़ समान रूप से कार्रवाई करते हैं। इस कार्रवाई में ऐसे जीवाणुओं एवं हानिकारक तत्वों की पहचान से लेकर उनका विनाश सब कुछ शामिल होता है। जीवाणुओं के किसी अंग या ऊतक में प्रवेश करते ही सबसे पहली प्रतिक्रिया उस अंग विशेष अथवा ऊतक में प्रदाह के रूप में देखी जाती है। यह प्रदाह उस अंग या ऊतक में सूजन एवं लालिमा के साथ-साथ दर्द एवं बुखार के रूप में परिलक्षित होता है। इसका कारण है, इस संक्रमित क्षेत्र में रक्त प्रवाह का अचानक बढ़ जाना। संक्रमण के कारण घायल अथवा संक्रमित कोशिकाएँ मुख्य रूप से दो प्रकार के रसायन समूहों का उत्पादन एवं श्राव करने लगती हैं- एइकोसैन्वाएड्स तथा साइटोकाइन्स। एइकोसैन्वायड्स समूह का एक उदाहरण प्रोस्टाग्लैंडिंस है, जो ताप बढ़ाने एवं रक्त वाहिनियों को फैला कर उस क्षेत्र मे रक्त प्रवाह को बढ़ाने का काम करते हैं। इसी समूह के रसायन का दूसरा उदाहरण है- ल्युकोट्रीन्स, जो संक्रमित क्षेत्र में ल्युकोसाइट्स (श्वेत रक्त कणिकाओं) को अधिक से अधिक संख्या में आकर्षित करती है। बढ़ा हुआ ताप जीवाणुओं को मारने या फिर उनकी संख्या कम करने में सहायक होता है क्योंकि उच्च ताप पर जीवाणुओं के एन्ज़ाइम्स नष्ट होने लगते हैं। ल्युकोसाइट्स (जो हमारी मुख्य सुरक्षा सेना है) की उपयोगिता के बारे में आगे बताया जाएगा। इंटरल्युकिंस, ल्युकोसाइट्स के मध्य संचार माध्यम का कार्य करती हैं तथा इंटरफेरॉन्स, जो वाइरस-संक्रमित कोशिकाओं में प्रोटीन संश्लेषण को बंद कर वाइरस प्रतिरोधी प्रभाव उत्पन्न करते हैं- साइटोकाइन्स समूह के उदाहरण हैं।
साइटोकाइन्स तथा इसी प्रकार के अन्य रसायन संक्रमित क्षेत्र मे अधिक से अधिक संख्या में नाना प्रकार के प्रतिरोधी कोशिकाओं को आकर्षित करते हैं ताकि घायल ऊतकों की मरम्मत के साथ-साथ जीवणुओं का सफाया भी किया जा सके।
उपरोक्त प्रतिरक्षा उपायों में ल्युकोसाइट्स ज़िक्र आया है। वास्तव में ये मुख्य रूप से पाँच प्रकार के होते हैं - इयोसिनोफिल्स, बेसोफिल्स, न्युट्रोफिल्स, मोनोसाइट्स एवं लिम्फोसाइट्स। इन सभी का उत्पादन हमारी अस्थियों की श्वेत मज्जा में ही होता है, परंतु इनकी संरचना एवं कार्यविधि में अंतर होता है। न्युट्रोफिल्स तथा मोनोसाइट्स स्वतंत्र रूप से विचरण करने वाली भक्षक कोशिकाओं की श्रेणी मे आती हैं। मोनोसाइट्स संक्रमित ऊतक में पहुँच कर मैक्रोफेजेज़ में पविर्तित हो जाती हैं। ये कोशिकाएँ संक्रमित ऊतकों में घूम-घूम कर जीवाणुओं का न केवल पहचान करती हैं, बल्कि उनसे चिपट कर (यदि वे आकार में बड़े हैं) या फिर उनका भक्षण कर (यदि वे आकार में छोटे हैं), सफाया करती हैं। इनके अतिरिक्त ऊतकों में उपस्थित नेचुरल किलर सेल्स वाइरस संक्रमित एवं ट्युमर कोशिकाओं के मेंब्रन में छिद्र बनाते हैं जिनके द्वारा इनमें पानी घुसने लगता है और अंत में ये कोशिकाएँ फट कर नष्ट हो जाती हैं। इनके अतिरिक्त कुछ सीमा तक इओसिनोफल्सि, बेसेफिल्स, ऊतकों में पाए जाने वाले डेंड्राइटिक तथा मास्ट कोशिकाएँ भी इस नैसर्गिक प्रतिरक्षा प्रणाली के हिस्से हैं जो येन-केन-प्रकरेण जीवाणुओं का सफाया करनें में सहायक होती हैं।
इनके अतिरिक्त तीस से भी अधिक प्रोटीन्स से सुसज्जित एक पूरक तंत्र भी होता है जो न केवल नैसर्गिक अपितु अर्जित सुरक्षा प्रणाली में भी भागीदार है। इस तंत्र के प्रोटीन्स तरह-तरह के तरीक़ों से इन संक्रामक जीवाणुओं से हमारी रक्षा करने में जुटे रहते हैं।
कैसे? इसकी चर्चा अगले अंक में अर्जित सुरक्षा प्रणाली की चर्चा के साथ की जाएगी।


[जारी है........]

2008/05/30

हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली और उसके जुझारू सैनिक-2

हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली और
उसके जुझारू सैनिक-2
-------------------------

[गतांक से आगे]............

शरीर के कई आंतरिक अंगों की अंदरूनी सतह का निर्माण करने वाली एंडोथीलियल मेंब्रेन की कोशिकाएँ प्राय: एक ही परत में सिमटी होती हैं लेकिन ये कई प्रकार की होती हैं और तरह-तरह से हमें सुरक्षा प्रदान करती है। यथा- आहार नाल, श्वसन तथा प्रजनन तंत्र के विभिन्न हिस्सों में ये एक प्रकार के गाढे द्रव का श्राव करती है जो इन तंत्रों में घुसे जीवाणुओं तथा अन्य बाहरी तत्वों को फँसाने का कार्य करती हैं एवं अन्य प्रकार की कोशिकाएँ जिनके बाहरी सतह पर अत्यंत बारीक बालनुमा संरचनाएँ होती हैं, इन जीवाणुओं को इन अंगों से बाहर निकालने के प्रयास में लगी रहती हैं। छींकना, खाँसना आदि इसी प्रयास के उदाहरण हैं। कई अंगों में ये एंडोथिलियल कोशिकाएँ ग्रंथि का रूप ले लेती हैं, जिनके श्राव तरह-तरह से हमारी सुरक्षा करते हैं। यथा- मुख में लार, आँखों में आँसू या फिर स्तन में दूध का उत्पादन करने वाली ग्रंथियाँ लाइसोज़ाइम एवं फास्फोलाइपेज़ नामक एंज़ाइम का श्राव भी करती हैं, जो बैक्टीरिया के सेलवाल को ही पचाने की क्षमता रखती हैं और इस प्रकार इन अंगों में उनका विनाश करती रहती हैं। हमारे आमाशय में ऑक्ज़िटिक नामक एंडोथीलियल कोशिकाएँ हाइड्रोक्लोरिक एसिड के उत्पादन में संलग्न रहती हैं। यह एसिड भोजन के साथ घुस आए अधिकांश बैक्टीरिया का सफाया कर देने की क्षमता रखता है। त्वचा एवं श्वसन तंत्र की कोशिकाएँ भी बीटा डिफेंसिन जैसे एंटीबैक्टीरियल रसायन का श्राव करती हैं, जो जीवाणुओं के विनाश में काम आते हैं।

हमारे शरीर की कुछ विशिष्ट कोशिकाएँ जब वाइरस से संक्रमित होती हैं तो एक विशेष प्रकार के ग्लाइकोप्रोटीन्स इंटरफेरॉन्स का उत्पादन करती हैं। ये रसायन आसपास की कोशिकाओं को वाइरस संक्रमण के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता से सुसज्जित करने में सहायक होते हैं। परिणाम स्वरूप व्यक्ति की वाइरस प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है।
इसके अतिरिक्त प्रकृति ने हमारे जनन, उत्सर्जन एवं आहार नाल के शरीर के बाहर खुलने वाले छिद्रों एवं उनसे जुड़ी नलिकाओं में हानिरहित सहभोजी बैक्टीरिया का जंगल उगा रखा है। इन रास्तों से शरीर में घुसने वाले हानिकारक जीवणुओं का प्रतिरोध ये सहभोजी बैक्टीरिया भी करते हैं। ये बैक्टीरिया इन संक्रामक जीवाणुओं से भोजन एवं आवास के लिए प्रतिस्पर्धा करने के साथ-साथ इन स्थानों की क्षारीयता एवं अम्लीयता मे परिवर्तन कर संक्रामक जीवाणुओं का जीवन दूभर कर देते हैं। इन कारणों से इन रास्तों से घुसने वाले जीवाणुओं की संख्या उस सीमा तक नही पहुँच पाती जिससे व्यक्ति रोग-ग्रसित हो जाए।

नाना प्रकार के प्रतिरोधकों-अवरोधकों से सुसज्जित नैसर्गिक सुरक्षा प्रणाली का वरदान प्रकृति ने हमें दिया है। भला हम किस कर्ण से कम सौभाग्यशाली हैं? लेकिन बहुत खुश होने की आवश्यकता नहीं है। इन तमाम व्यवस्थाओं के बावजूद भी रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणु हमारे शरीर मे घुस ही जाते हैं एवं तरह-तरह के रोगों का कारण बनते हैं। आख़िर ये संक्रामक जीवाणु कोई हँसी खेल तो है नहीं। इनके पास भी तरह-तरह के रसायनों के रूप मे सक्षम आक्रमक क्षमता होती है, जो हमारी नैसर्गिक सुरक्षा प्रणाली को ध्वस्त कर सकती है और इन्हें हमारे शरीर में प्रवेश दिला सकती है। ये रसायन मुख्य रूप से एंज़ाइम्स ही होते हैं जो हमारी बाह्य सुरक्षा प्रणाली की कोशिकाओं को नष्ट कर शरीर में इनके प्रवेश को सुगम बनाते हैं।

शरीर में ये जीवाणु येन-केन प्रवेश पा गए इसका मतलब यह नहीं है कि बस, अब शरीर पर इनका साम्राज्य स्थापित हो गया। शरीर के अंदर भी इनसे निपटने के हमारे पास तमाम कारगर तरीक़े हैं। कुछ तरीक़े तो ऊपर वर्णित नैसर्गिक सुरक्षा प्रणाली के ही अंग हैं लेकिन बाकी हमारे द्वारा अर्जित सुरक्षा प्रणाली के हिस्से हैं, जिनकी कार्य प्रणाली जटिल परंतु ज़्यादा कारगर है।
लेख के अगले अंक में नैसर्गिक तरीक़ों की जाँच पड़ताल कर ली जाए फिर उस के अगले अंक में अर्जित सुरक्षा प्रणाली (AQUIRED) पर बातचीत की जाएगी।

[जारी है...........]

2008/05/29

'हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली और उसके जुझारू सैनिक'-1

हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली और
उसके जुझारू सैनिक-1
------------------------------

वैसे तो पौराणिक ग्रंथ महाभारत और उसमें वर्णित अद्भुत दिव्य अलौकिक शक्तियों से युक्त तमाम नायक-नायिकाओं की जानकारी हममें से अधिकांश को है ही, लेकिन यहाँ इस ग्रंथ के एक महानायक कर्ण का उल्लेख करना प्रासंगिक है। यह तथाकथित सूर्य-पुत्र विशिष्ट प्रकार के कवच एवं कुंडल के साथ ही पैदा हुआ था। कवच इसकी त्वचा एवं कुंडल उसके कान के अभिन्न हिस्से थे। इनके रहते इस पर किसी अस्त्र-शस्त्र का असर नहीं हो सकता था। कर्ण को युद्ध में हराने एवं मारने के लिए स्वयं इंद्र को उसके पास जाकर इस सुरक्षा प्रणाली का दान माँगना पड़ा था। कितना भाग्यशाली था न कर्ण?

लेकिन उससे ईर्ष्या करने और अफ़सोस करने की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार की अलौकिक शक्तियाँ हम साधारण मनुष्यों के पास भले ही न हों, लेकिन प्रकृति हम पर भी काफ़ी मेहरबान है। प्रकृति ने हमें भी एक मज़बूत सुरक्षा प्रणाली प्रदान कर रखी है। यह प्रणाली नाना प्रकार के घातक अस्त्र-शस्त्रों के प्रति भले ही अभेद्य न हो, परंतु तमाम प्रकार के सामान्य या फिर घातक रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं से लगातार हमारी रक्षा करने का प्रयास करती रहती है और इस प्रयास में अक्सर सफल भी रहती है। यह सुरक्षा प्रणाली, जिसे प्रतिरोधक तंत्र के नाम से जाना जाता है, सदैव सक्रिय रहती है और अपना काम इतने चुपचाप तरीक़े से करती रहती है कि हमें इसका भान भी नहीं होता है। विज्ञानवार्ता में इसी तंत्र को समझने-बूझने का प्रयास किया जाएगा।

अगर मैं यह कहूँ कि इस प्रतिरोधक तंत्र में अर्धसैनिक-बल से ले कर तरह-तरह के हरबा-हथियारों से लैस, आमने-सामने की लड़ाई में दक्ष सैनिकों के दस्ते, नाना प्रकार के रसायनिक हथियारों को स्वयं ही संश्लेषित करने एवं उनका उपयोग करने की क्षमता से लैस उच्चकोटि के तकनीकि सैनिक-बल एवं यहाँ तक कि मरे हुए सैनिक भी इस सुरक्षा प्रणाली में शामिल हैं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वास्तव में, ये सैनिक बल और कोई नहीं हमारी अपनी कोशिकाएँ ही हैं जो अलग-अलग विशिष्टताओं से लैस होती हैं। आखिरकार सूक्ष्म जीवाणुओं से लड़ने के लिए सूक्ष्म कोशिकाएँ ही कारगर हो सकती हैं न। बड़े-बड़े विशालकाय योद्धा भला किस काम के! इस प्रणाली की संरचना कैसी है और यह कैसे काम करती है, आइए अब इसे समझा जाए।

इस प्रणाली का एक हिस्सा हमें जन्म के साथ विरासत में मिलता है और दूसरा हिस्सा हम जन्म के बाद नाना प्रकार के जीवाणुओं का सामना करते हुए अर्जित करते हैं। नैसर्गिक (INNATE) अथवा जन्म से मिली सुरक्षा प्रणाली लगभग सभी प्रकार के जीवाणुओं या फिर अन्य प्रकार के अनजाने, अनचीन्हे पदार्थों का शरीर में प्रवेश अवरुद्ध करने का प्रयास करती है। इस नाकेबंदी के बाद भी यदि बाहरी तत्व शरीर में प्रवेश कर पाने में सफल हो जाते हैं तो इसी प्रणाली के अन्य अवयव उन्हें तुरंत मार डालने या फिर कम से कम उन्हें निष्क्रिय करने का प्रयास अवश्य करते हैं। हमारे शरीर की खूबसूरत त्वचा एवं आंतरिक अंगों की अंदरूनी सतह का निर्माण करने वाला एंडोथीलियल मेंब्रेन, इस प्रणाली के महत्वपूर्ण अवयव हैं। ये दोनों ही सीमा पर तैनात सजग प्रहरियों के समान सदैव सक्रिय रहते हैं। सबसे पहले तो ये विदेशी तत्वों को शरीर में घुसने ही नहीं देते यदि वे किसी तरह घुस भी गए तो उन्हें पकड़ना और बाहर खदेड़ना भी इनके ज़िम्मे है। त्वचा का बाहरी हिस्सा लाखों-करोड़ों कोशिकाओं की कई परतों का बना होता है। इसकी सबसे भीतरी परत की कोशिकाओं में ही विभाजन की क्षमता होती है एवं यह प्रक्रिया इनमें सदैव चलती रहती है। इस प्रकार नवनिर्मित कोशिकाएँ पुरानी कोशिकाओं की परतों को बाहर की ओर ठेलती रहती हैं। जैसे-जैसे पुरानी परतें बाहर की ओर आती हैं, इनकी कोशिकाएँ चिपटी होती जाती हैं एवं इनके अंदर पाया जाने वाला एक विशेष प्रोटीन अघुलनशील किरैटिन में बदलता जाता है। त्वचा की बाहरी सतह तक आते-आते ये कोशिकाएँ मृतप्राय: हो जाती हैं और सूख कर त्वचा से अलग होती रहती हैं। इन किरैटिनयुक्त मृतप्राय: कोशिकाओं को जीवाणुओं के लिए भेद पाना मुश्किल होता है और यदि इसे भेदने में ये सफल भी हो जाते हैं तो जब तक ये त्वचा की भीतरी परतों में प्रवेश करें, इन्हें मृतप्राय: कोशिकाओं के साथ शरीर से अलग कर दिया जाता है। यही नहीं, यह त्वचा हमें गर्मी-सर्दी के साथ-साथ वातावरण के तमाम हानिकारक अवयवों यथा रेडिएशन, अम्लीय, क्षारीय वस्तुओं के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करती है।


[जारी है..........]

आप को ये लेख कैसे लग रहे हैं......

आप के विचारों का इंतज़ार रहेगा...

धन्यवाद..


2008/04/24

रक्तदान महादान है [अन्तिम भाग]

गतांक से आगे ........
कुछ समस्याएँ तो इन सब के बाद भी बनी रहीं ओर भी बनी हुई हैं। यथा, आकस्मिक दुर्घटना के कारण अचानक आवश्यकता से अधिक रक्त की हानि होने पर मरीज़ की जान बचाने के लिए तुरंत रक्त की आवश्यकता पड़ती है और वह भी उस ग्रुप की जो उसके लिए उचित हो। यदि समय रहते सही रक्तदाता न मिले तो समस्या गंभीर हो सकती है। सामूहिक दुर्घटना की स्थिति में तो बहुत सारे रक्त की, वह भी अलग-अलग ग्रुप वाले रक्त की आवश्यकात पड़ सकती है। इस समस्या से निपटने के लिए ब्लड बैंक की स्थापना का विचार आया। यह तभी संभव हो पाया जब 1910 में लोगों की समझ में यह बात आई कि रक्त को जमने से रोकने वाले रसायन एंटीकोआगुलेंट को रक्त में मिला कर उसे कम ताप पर रेफ्रिज़िरेटर में कुछ दिनों के लिए रखा जा सकता है। 27 मार्च 1914 में एल्बर्ट हस्टिन नामक बेल्जियन डॉक्टर ने पहली बार दाता के शरीर से पहले से निकाले रक्त में सोडियम साइट्रेट नामक एंटीकोआगुलेंट को मिला कर मरीज़ के शरीर में ट्रांसफ्यूज़ किया। लेकिन पहला ब्लड बैंक 1 जनवरी 1916 में ऑस्वाल्ड होप राबर्ट्सन द्वारा स्थापित किया गया।

इस सबके बावजूद संसार में मरीज़ों की जान बचाने के लिए रक्त का अभाव बना ही रहता है। वैज्ञानिक निरंतर इस प्रयास में लगे रहते हैं कि किस प्रकार इस समस्या से निपटा जाय। साथ ही यह भी प्रयास रहा है कि किस प्रकार लाल रुधिर कणिकाओं पर पाए जाने वाले एंटीजेंस से छुटकारा मिल सके ताकि किसी का रक्त किसी को भी दिया जा सके। १९६० के बाद इस प्रयास में काफी तेजी आई है। डेक्सट्रान जैसे संश्लेषित प्लाज़्मा सब्सटीच्यूट द्वारा रक्त का परिमाण तो बढ़ाया जा सकता है लेकिन शरीर की कोशिकाओं को रक्त पहुँचाने वाले लाल रुधिर काणिकाओं का क्या सब्स्टीच्यूट है? 1970 के दशक में जापान के वैज्ञानिकों ने फ्लूओसॉल-डीए जैसे रसायन का आविष्कार किया जो कोशिकाओं को अस्थायी तौर पर ऑक्सीजन पहुँचाने का काम कर सकते हैं।

1980 के दशक में वैज्ञानिकों को एक ब्लड ग्रुप को दूसरे में परिवर्तित करने में आंशिक सफलता मिली थी। इसी की अगली कड़ी है- युनिवर्सिटी ऑफ कोपेनहेगेन के नेतृत्व में अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों के दल ने एक ऐसी तकनीक़ का विकास किया है जिसके द्वारा किसी भी ग्रुप के आरएच निगेटिव रक्त को, चाहे वह ए ग्रुप का हो या बी का अथवा एबी का, ओ ग्रुप में परिवर्तित किया जा सकता है। यदि आपने यह आलेख ध्यान से पढ़ा है तो आप जानते ही हैं कि ओ ग्रुप का रक्त किसी को भी दिया जा सकता है। यह एक क्रांतिकारी अनुसंधान है।

1 अप्रैल 2007 के नेचर बॉयोटेक्नॉलॉजी के अंक में प्रकाशित आलेख के अनुसार लगभग 2500 बैक्टीरिया एवं फफूंदियो की प्रजातियों के जांच-पड़ताल के बाद इन वैज्ञानिकों को एलिज़ाबेथकिंगिया मेनिंज़ोसेप्टिकम एवं बैक्टीरियोऑएड्स फ्रैज़ाइलिस में पाए जाने वाले सक्षम ग्लाइकोसाइडेज़ एन्ज़ाइम्स की खोज में सफलता मिली है जो लाल रुधिर कणिकाओं की सतह से संलग्न ऑलिगोसैक्राइड्स (एंटीजेन ए अथवा बी) को बड़ी सफ़ाई से काट कर अलग कर सकते हैं और वह भी तटस्थ पीएच पर। इन एन्ज़ाइम्स की क्रियाशीलता केवल ए तथा बी एंटीजन्स तक ही सीमित है। ये आरएच एंटीजेन के विरूद्ध अप्रभावी हैं, फलत: इनके द्वारा केवल आरएच निगेटिव रक्त को ही ओ ग्रुप में बदला जा सकता है। यह सीमित सफलता भी बड़ी महत्वपूर्ण है। इसके द्वारा भी बहुतेरे मरीज़ों की जान बचाई जा सकेगी। हालांकि इस विधा का क्लीनिकल ट्रायल अभी शेष है। आशा है, जल्दी ही इसे भी पूरा कर लिया जाएगा एवं इसका लाभ शीघ्र ही मरीज़ों को मिलने लगेगा।
----------------------इति ---------------

आप की प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार है.अगर आप किसी विज्ञान संबंधित विषय विशेष पर लेख चाहते हैं तो कृपया
ई -मेल या प्रतिक्रिया में बताएं।
धन्यवाद।
डॉ.गुरुदयाल प्रदीप.

2008/04/23

रक्तदान महादान है [भाग -२]

गतांक से आगे -----



1905 में कार्ल लैंडस्टीनर ने अपने प्रयोगों द्वारा यह दर्शाया कि सारे मनुष्यों का रक्त सारे मनुष्यों के लिए उचित नहीं है। ऐसे प्रयासों में भी कभी-कभी मरीज़ के शरीर में दाता के रक्त की रुधिर कणिकाओं के थक्के उसी प्रकार बनते हैं जैसा लैंड्यस ने जानवरों के रक्त के बारे में दर्शाया था। 1909 में लैंडस्टीनर ने अथक प्रयास के बाद यह दर्शाया कि किस प्रकार के मनुष्य का रक्त किसे दिया जा सकता है।
उन्होंने पाया कि हमारी लाल रुधिर कणिकाओं के बाहरी सतह पर विशेष प्रकार के शर्करा ऑलिगोसैक्राइड्स से निर्मित एंटीजेन्स पाए जाते हैं। ये एंटीजन्स दो प्रकार के होते हैं- ए एवं बी। जिन लोगों की रक्तकाणिकाओं पर केवल ए एंटीजेन पाया जाता है उनके रक्त को ए ग्रुप का नाम दिया गया। इसी प्रकार केवल बी एंटीजेन वाले रक्त को बी ग्रुप तथा जिनकी रुधिर कणिकाओं पर दोनों ही प्रकार के एंटीजेन पाए जाते हैं उनके रक्त को एबी ग्रुप एवं जिनकी रक्तकणिकाओं में ये दोनों एंटीजेन्स नहीं पाए जाते उनके रक्त को ओ ग्रुप का नाम दिया गया। सामान्यतया अपने ग्रुप अथवा ओ ग्रुप वाले व्यक्ति से मिलने वाले रक्त से मरीज़ को कोई समस्या नहीं होती, लेकिन जब किसी मरीज़ को किसी अन्य ग्रुप के व्यक्ति (ए,बी या फिर एबी) रक्त दिया जाता है तो मरीज़ के शरीर में दाता के रक्त की लाल रुधिर कणिकाओं के थक्के बनने लगते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि ए का रक्त बी, एबी एवं ओ में से किसी को नहीं दिया जा सकता; बी का रक्त ए, एबी एवं ओ को नहीं दिया जा सकता और एबी का रक्त तो किसी को नहीं दिया जा सकता। परंतु एबी (युनिवर्सल रिसीपिएंट) को किसी भी ग्रुप का रक्त दिया जा सकता है तथा ओ (युनिवर्सल डोनर) किसी को भी रक्त दे सकता है।
ऐसा क्यों होता है? इसे पता लगाने के प्रयास में यह पाया गया कि किसी भी व्यक्ति के रक्त के तरल भाग प्लाज़्मा में एक अन्य रसायन एंटीबॉडी पाया जाता है। यह रसायन उस व्यक्ति की लाल रुधिर काणिकाओं के उलट होता है। ए ग्रुप में बी एंटीबॉडी मिलता है तो बी में ए एवं ओ में दोनों एंटीबॉडीज़ मिलते हैं। परंतु एबी में ऐसे किसी भी एंटीबॉडीज़ का अभाव होता है। एक ही प्रकार के एंटीजेन एवं एंटीबॉडी के बीच होने वाली प्रतिक्रिया के फलस्वरूप रुधिर कणिकाएँ आपस में चिपकने लगती हैं, जिससे इनका थक्का बनने लगता है। यही कारण है कि जब ए का रक्त बी को दिया जाता है मरीज के रक्त में उपस्थित एंटीबॉडी ए दाता के लाल रुधिर कणिकाओं पर पाए जाने एंटीबॉडी ए से प्रतिक्रिया कर उनका थक्का बनाने लगते हैं। यही बात तब भी होती है जब बी का रक्त ए को दिया जाता है। चूँकि ओ में दोनों ही एंटीबॉडीज़ मिलते हैं अत: ऐसे मरीज़ को ए,बी अथवा एबी, किसी का रक्त दिए जाने पर उसमें पाए जाने वाली रुधिर कणिकाओं का थक्का बनना स्वाभाविक है। इसके उलट, एबी में कोई भी एंटीबाडी नहीं होता अत: इसे किसी भी ग्रुप का रक्त दिया जाय थक्का नहीं बनेगा। रक्तदान के पूर्व दाता एवं मरीज़ दोनों के रक्त का ग्रुप पता करने की विधा भी खोज निकाली गई।
कार्ल लैंडस्टीनर की इस खोज ने ब्लड ट्रांसफ्युज़न के फलस्वरूप मरीज़ों को होने वाली परेशानियों एवं इनकी मृत्युदर में भारी कमी ला दी। चिकित्सा जगत के लिए यह खोज इतनी महत्वपूर्ण थी कि 1930 में लैंडस्टीनर को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बाद में आरएच फैक्टर एवं एम तथा एन जैसे एंटीजेन तथा ब्लड ग्रुप की खोज में भी इन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।[जारी है .....]

लेकिन फ़िर भी कुछ समस्याएं बनी रहीं वे क्या थीं और उनका क्या हल निकाला जा सका हम जानेंगे कल के लेख में --

आप की प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा है। अगर आप चाहते हैं की किसी ख़ास विषय पर भी लिखा जाएउस के लिए कृपया ई मेल कर के बताएं ।

धन्यवाद

2008/04/22

रक्तदान महादान है [भाग -१]


रक्तदान महादान है
-------------------

रुधिर. . .ख़ून जी हाँ, लाल रंग का यह तरल ऊतक हमारा जीवन-आधार है। हालाँकि हमारे शरीर में इसकी मात्रा मात्र चार से पाँच लीटर ही होती है, फिर भी यह हमारे लिए बहुमूल्य है। इसके बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। जीवन को चलाए रखने में यह कौन-कौन-सी भूमिका अदा करता है, इसकी लिस्ट तो लंबी-चौड़ी है फिर भी इसके कुछ मुख्य कार्य-कलापों पर दृष्टिपात करने पर ही इसके महत्व का पता चल जाता है।
शरीर की लाखों-करोड़ों कोशिकाओं को आक्सीजन तथा पचा-पचाया भोजन पहुँचा कर यह उनके ऊर्जा-स्तर को बनाए रखने से लेकर भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी उठाता है। उन कोशिकाओं से कार्बन-डाई-ऑक्साइड तथा यूरिया जैसे विषैली गैसों एवं रसायनों को निकालने के कार्य में भी यह लगा रहता है। बीमारी पैदा करने वाले कीटाणुओं से तो यह लगातार लड़ता रहता है और उनके विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता बनाए रखने में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त एक अंग में निर्मित रसायनों, यथा हॉमोन्स को शरीर की सभी कोशिकाओं तक पहुँचाने से लेकर शरीर के ताप को एकसार बनाए रखने, आदि तमाम कार्यों में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है।
इसकी संरचना में प्रयुक्त अवयवों के अनुपात में थोड़ा असंतुलन भी हमारे लिए तमाम परेशनियाँ खड़ी कर सकता है। यथा- सोडियम की ज़्यादा मात्रा रक्तचाप को बढ़ा देता है तो पानी की कमी हमें मौत के क़रीब पहुँचा सकती है और ऑयरन की कमी एनिमिक बना सकती है, आदि-आदि. . .। जब इतने से ही इतना कुछ हो सकता है तो ज़रा सोचिए, जब यह पूरा का पूरा हमारे शरीर से निकलने लगे तब क्या होगा? और दुर्भाग्य से हमारे साथ ऐसा होता ही रहता है।छोटी-मोटी चोटें तो हमारी दिनचर्या का हिस्सा है और इनसे निकलने वाले रक्त की कोई परवाह भी नहीं करता। कारण, हमारे शरीर में रक्त-निर्माण की प्रकिया शैने: शैने: सतत रूप से चलती ही रहती है। साथ ही रक्त में एक और गुण होता है और वह यह कि हवा के संपर्क में आते ही यह स्वत: जमने लगता है, जिसके कारण छोटे-मोटे घावों से निकलने वाला रक्त थोड़ी देर में स्वत: रुक जाता है। चिंता का विषय तब होता है जब हमें बड़ी एवं गंभीर चोट लगती है। ऐसी स्थिति में बड़ी रक्त-वाहिनियाँ भी चोटिल हो सकती हैं। इन वाहिनियों से निकलने वाले रक्त का वेग इतना ज़्यादा होता है कि रक्त के स्वत: जमाव की प्रक्रिया को पूरा होने का अवसर ही नहीं मिलता और एक साथ थोड़े ही समय में शरीर से रक्त की इतनी अधिक मात्रा निकल जाती है कि व्यक्ति का जीवन संकट में आ जाता है। यदि समय से उसे चिकित्सा-सुविधा न मिले तो मौत निश्चित है। चिकित्सकों का पहला प्रयास रहता है कि रक्त-प्रवाह को किस प्रकार रोका जाय और फिर यदि शरीर से रक्त की मात्रा आवश्यकता से अधिक निकल गई हो तो बाहर से किस प्रकार रक्त की आपूर्ति की जाए।
बाहर से रक्त की आपूर्ति के संबंध में प्रयास एवं प्रयोग तो सत्रहवीं सदी से ही किए जा रहे थे। इन प्रयोगों में एक जानवर का रक्त दूसरे जानवर को प्रदान करने से ले कर जानवर का रक्त मनुष्य को प्रदान करने के प्रयास शामिल हैं। इनमें से अधिकांश प्रयोग असफल रहे तो कुछ संयोगवश आंशिक रूप से सफल भी रहे। 1885 में लैंड्यस ने अपने प्रयोंगों से यह दर्शाया कि जानवरों का रक्त मनुष्यों के लिए सर्वथा अनुचित है। कारण, मनुष्य के शरीर में जानवर के रक्त में पाए जाने वाली लाल रुधिर कणिकाओं के थक्के बन जाते है एवं ये थक्के रक्त वहिनियों को अवरुद्ध कर देते हैं जिससे मरीज़ मर सकता है। ऐसे प्रयोगों के फलस्वरूप, मनुष्य के लिए मनुष्य का रक्त ही सर्वथा उचित है, यह बात तो चिकित्सकों ने उन्नीसवीं सदी में ही समझ ली थी और एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर से रक्त प्राप्त कर ऐसे मरीज़ के शरीर में रक्त आपूर्ति की विधा भी विकसित कर ली गई थी एवं इसका उपयोग भी किया जा रहा था। लेकिन इसमें भी एक पेंच देखा गया- कभी तो इस प्रकार के रक्तदान के बाद मरीज़ बच जाते थे, तो कभी नहीं।


[जारी है...................]


-आगे क्या हुआ यह जानने के लिए इस लेख का अगला भाग कल पढिये ....

2008/04/17

मकडी के जाल का सदुपयोग [अन्तिम भाग]

कल हम ने जाना था कि इन नए रेशों से बने पदार्थों का उपयोग नए प्रकार की एंज़ाइमेटिक प्रतिक्रियाओं¸ रासायनिक उत्प्रेरण अथवा इलेक्टि्रॉनिक सिग्नल्स के संचरण में किया जा सकेगा।
लेकिन ये सारे सपने तभी साकार हो सकते हैं जब हम इन तंतुओं या फिर इनसे मिलते–जुलते तंतुओं का उत्पादन वृहत पैमाने पर व्यापारिक रूप से कर सकें। इस संदर्भ में सभी संभावनाओं की जांच–पड़ताल की जा रही है। इनमें से कुछ को लागू करना संभव ही नहीं है तो कुछ में हमें फिलहाल आंशिक सफलता ही मिल पाई है¸ परंतु भविष्य में पूर्ण सफलता की संभावना प्रबल है।
इनमें से सबसे अच्छा और आसान तरीका तो इन मकड़ियों को पाल कर उनसे उसी प्रकार रेशम प्राप्त करना था¸ जिस प्रकार हम रेशम के कीडों को शहतूत के पत्ते पर पाल कर उनसे रेशम प्राप्त करते हैं। लेकिन मकड़ियां स्वभावत: शिकारी तथा अपने अधिकार क्षेत्र पर कब्ज़े के प्रति सजग होती हैं। साथ ही ये प्राय: स्वजाति–भक्षक भी होती हैं। अत: इन्हें पालना तथा इनसे रेशम प्राप्त करना संभव नहीं है।
दूसरी संभावना है– इन तंतुओं का कृत्रिम उत्पादन। इस कार्य के लिए हमें चाहिए ऐसी व्यवस्था जहां इस प्रकार के रेशमी तंतुओं के निर्माण में प्रयुक्त प्रोटीन्स या उससे मिलते–जुलते अन्य रासायनिक अणुओं का वृहत स्तर पर कृत्रिम रूप से उत्पादन किया जा सके तथा ऐसी कताई मिले जहां इन अणुओं को संयोजित कर मकड़ियों के रेशमी तंतुओ के समान गुणवत्ता वाले तंतुओं का उत्पादन किया जा सके। इस दिशा में काफ़ी समय से किए जा रहे प्रयासों का फल आंशिक रूप से ही सही¸ अब वैज्ञानिकों को मिलने लगा है। इसका मुख्य श्रेय जेनेटिक इंजीनियरिंग तथा बायोटेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में हो रहे त्वरित विकास को दिया जाना चाहिए।
मकड़ियों में रेशम के उत्पादन में प्रयुक्त प्रोटीन्स के अणुओं के संश्लेषण करने वाले जीन्स की पहचान कर उसे जेनेटिक इंजीनियरिंग जैसी तकनीक की मदद से अन्य जैव कोशिकाओं या जीवों में स्थानांतरित कर क्रित्रम रूप से ऐसे प्रोटीन्स के संश्लेषण में आंशिक रूप से सफलता मिली है। यह विधा इतनी आसान नहीं है। कारण¸ ऐसे जीन्स काफ़ी जटिल संरचना वाले हैं जिनमें एक ही प्रकार के नाइट्रोजन बेसेज़ की श्रृंखला बार–बार दुहराई गई है तथा ये जीन्स प्रोटीन संश्लेषण में हमारी कोशिकाओं से भिन्न प्रकार के कोडॉन तंत्र का उपयोग करते हैं।
फिलहाल हाल के कुछ प्रयोगों में इन जीन्स के कुछ भाग को इiश्रशिया कोलाई जैसे बैक्टीरिया¸ कुछ स्तनधारी जीवों तथा कीटों की कोशिकाओं में स्थानांतरित कर ऐसे प्रोटीन्स के संश्लेषण में सफलता हाथ लगी है। परंतु ऐसे प्रोटीन्स गुणवत्ता में प्राकृतिक प्रोटीन्स की बराबरी नहीं कर सकते तथा इनका उत्पादन बहुत थोड़ी मात्रा में हो रहा है। इन प्रोटीन्स को तंतु के रूप में परिवर्तित करना एक अलग चुनौती है। प्रयोगशाला में इस प्रकार संश्लेषित प्रोटीन्स के अणुओं द्वारा सिलिकॉन के सूक्ष्म कताई यंत्रो द्वारा जिस प्रकार के तंतुओं का निर्माण हो पाया है¸ वे प्रकृति रूप से उत्पादित 2 .5 मिलीमीटर– 4 मिलीमीटर व्यास वाले प्राकृतिक रेशम के तंतुओं की तुलना में काफ़ी मोटे— लगभग 10 से 60 मिलीमीटर व्यास वाले हैं।
इस संदर्भ में इज़राइल के हेब्यु युनिवर्सिटी¸ म्युनिक युनिवर्सिटी तथा ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के कुछ वैज्ञानिकों के दावे का उल्लेख करना प्रासंगिक भी है एवं उत्साहवर्धक भी। 'करेंट बायोलॉजी' के 23 नवंबर 2004 के अंक में प्रकाशित एक लेख में वैज्ञानिकों की इस टीम ने दावा किया है कि जेनेटिक इंजीनियरिंग की जटिल तकनीकि का उपयोग कर 'फाल आर्मी वर्म' नामक कीट के कैटरपिलर लार्वा से प्राप्त कोशिकाओं के लैब कल्चर में न केवल इच्छित प्रोटीन्स के अणुओं का संश्लेषण करने में सफलता पाई गई है¸ बल्कि इन कोशिकाओं में इनसे रेशमी तंतुओं के निर्माण में भी कुछ हद तक सफलता प्राप्त कर ली गई है।
सबसे पहले तो इन लोगों ने 'गाडेर्न स्पाइडर' के जीन्स के उन अंशों को अलग किया जो मकड़ी के रेशमी तंतु के उत्पादन में प्रयुक्त प्रोटीन के अणुओं – डी ऍफ़-३ तथा ऐ डीऍफ़ -4के संश्लेषण के लिए आवश्यक हैं। फिर इन्हें जेनेटिक इंजीनियरिंग की तकनीक द्वारा कीटों को संक्रमित करने वाले 'बैकुलोवाइरस' में स्थानांतरित किया गया। तत्पश्चात इन ट्रांसजेनिक वाइरसेज़ को 'फाल आर्मी वर्म' नामक कीट के कैटरपिलर से प्राप्त कोशिकाओं के लैब कल्चर में स्थानांतरित कर वहां प्रवर्धन के लिए छोड़ दिया गया। चूंकि मकड़ियां एवं कीट दोनों ही एक ही फाइलम 'आर्थोपोडा' से संबद्ध हैं इसलिए दोनों के जीनोम में काफ़ी–कुछ समानता होती है। इस कारण इन लोगों ने सोचा कि ये जीन्स इस कीट की कोशिकाओं द्वारा आसानी से ग्रहण कर लिए जाएंगे और संभवत: इच्छित गुणवत्ता वाले दोनों प्रकार के प्रोटीन्स के अणुओं का संश्लेषण इन कोशिकाओं में हो पाएगा। और वास्तव में न केवल ऐसा हुआ बल्कि इन कोशिकाओं में इनसे रेशमी तंतुओं का निर्माण भी होने लगा। बस थोड़ा सा अंतर यह हुआ कि इन कोशिकाओं में निर्मित तंतुओं मे केवल ऐ डी ऍफ़ -४ ही उपयोग हुआ¸ ऐ डी ऍफ़ -३ घुलनशील अवस्था में कोशिका द्रव में ही रह गया। कुछ भी हो¸ इस प्रकार निर्मित तंतु की मोटाई लगभग प्राकृतिक तंतु के समान ही है और कुछ गुणों में ये उनसे बीस भी हैं। इनमें रासायनिक प्रतिरोध क्षमता अधिक है।
इस अनुसंधान के बाद यह संभावना प्रबल हो गई है कि भविष्य मे इस प्रकार के रेशमी तंतुओं का व्यापारिक स्तर पर वृहत रूप में उत्पादन किया जा सकता है। इस अनुसंधानकार्य से जुड़ी 'यिसुम रिसर्च डेवलपमेंट कंपनी' ने तो इसके व्यापारीकरण की दिशा में ध्यान केंद्रित करना प्रारंभ कर दिया है। तो जनाब तैयार हो जाइए 'स्पाइडर मैन' बनने के लिए! भले ही वैसा नहीं जैसा इसी नाम के कॉमिक तथा फिल्मों में दिखाया जाता है।


फिर भी कम से कम इसके रेशम से बने समानों के उपभोक्ता के रूप में तो आप 'स्पाइडर मैन' बन ही सकते हैं।

-डॉ. गुरुदयाल प्रदीप

मकड़ी के जाले का सदुपयोग[भाग-२ ]

गतांक से आगे.....
अब चूंकि जाल बना कर शिकार फंसाना ही इनका मुख्य व्यवसाय है तो आइए अब देखें कि इस कार्य के लिए इनके पास क्या–क्या हरबा–हथियार हैं और कैसे इनका उपयोग बारीक तंतुओं के उत्पादन एवं लगभग अदृश्य जाल के निर्माण में किया जाता है। इनके उदर में बहुतेरी रेशम उत्पादक ग्रंथियां होती हैं जिनमें तरल फाइबर्स प्रोटीन्स के रूप में रेशम का उत्पादन होता रहता है। सभी प्रजातियों में कुल मिला कर 7 प्रकार की रेशम उत्पादक ग्रंथिया पाई गई हैं परंतु किसी भी एक प्रजाति में सातों प्रकार की गं`थियां नहीं पाई जाती। ये ग्रंथियां मकड़ी के पश्च भाग में गुदा द्वार के नीचे अवस्थित पतली ऊंगलियों के रूप में चार से आठ 'कताई उपांगों' में खुलती हैं। इन कताई उपांगों के मुख पर हजारों नलिकाएं होती हैं। रेशम–ग्रंथियों से तरल प्रोटीन्स के रूप में निकला रेशम जब इन नलिकाओं से गुज़रता है तो पॉलीमराइज़ हो कर ठोस रेशम के तंतु मे परिवर्तित हो जाता है।
इन रेशमी तंतुओं का उपयोग ये मकड़ियां जाल बनाने में बड़ी मितव्यता तथा कलात्मक ढंग से करती हैं। इनके बनाए जाल लगभग वृत्ताकार होते हैं। सबसे पहले तो ये एक अकेले परंतु तुलनात्मक दृष्टि से काफ़ी मोटे तथा मज़बूत रेशमी धागे की कताई करती हैं। इस धागे का सिरा हवा में तब तक खुला छोड़ दिया जाता है जब तक वह किसी पेड़ की टहनी या किसी अन्य ठोस आधार पर चिपक नहीं जाता। इस आधारभूत धागे को सही ढंग से व्यवस्थित करने के बाद त्रिज्जीय तंतुओं की कताई की जाती है जिनके द्वारा आधारभूत तंतुओं को जाल के मध्य स्थित संयोजन क्षेत्र से जोड़ा जाता है। तत्पश्चात इन त्रिज्जीय तंतुओं को न चिपकने वाले तंतुओं द्वारा कुंडलाकार ढंग से अस्थाई रूप से जोड़ा जाता है ताकि ये त्रिज्जीय तंतु अपने स्थान पर बने रह सकें। अंत में इन त्रिज्जीय तंतुओं को पतले परंतु चिपचिपे तंतुओं द्वारा पुन: कुंडलाकार रूप में जोड़ कर पुराने अस्थाई कुंडलाकार तंतुओं को हटा लिया जाता है। इन चिपचिपे कुंडलाकार तंतुओं से बना जाल शिकार फंसाने के काम आता है।
बड़ी मकडियां प्राय: इस जाल के केन्द्र में इस प्रकार बैठती हैं जिससे उनके प्रत्येक पैर न चिपकने वाले अलग–अलग त्रिज्जीय तंतुओं पर सधे रहें। जब भी शिकार फंस कर छटपटाता है¸ जाल के तंतुओं में कंपन होने लगता है जिसे मकड़ी त्रिज्जीय तंतुओं पर अपने पैर होने के कारण आसानी से महसूस कर लेती है। फिर तेजी से दौड़ कर शिकार को विष दंश से मार डालती है अथवा तेजी से उसके चारों ओर रेशमी तंतुओं का जाल बुन कर उसे निiष्क्रय कर देती हैं। छोटे आकार की मकड़ियां जाल के किनारे या उसके आस–पास घात लगा कर बैठी रहती हैं। हर प्रजाति के जाल में कुछ न कुछ अपनी विशिष्टता होती ही है। मकड़ियां अक्सर पुराने जाल के रेशम को खाती भी रहती हैं। क्यों कि निर्माण के एक दिन के अंदर ही इसमें प्रयुक्त रेशमी तंतुओं का चिपचिपापन हवा तथा धूल के कारण समाप्त होने लगता है। पुराने जाल के रेशम को खा कर उसे पचा लिया जाता है और संभवत: नए तंतु के उत्पादन में कच्चे माल की तरह इसका उपयोग फिर से किया जाता है। मितव्ययता का यह एक नायाब नमूना है।
रेशमी तंतुओं के उत्पादन एवं जाल बुनने की कला में निपुणता के कारण काल्पनिक कहानियों तथा मिथकों में इन्हें आदिकाल से ले कर आज तक स्थान मिलता रहा है। 'स्पाइडर मैन' के नाम से कॉमिक्स¸ कार्टून्स तथा फिल्मों की लोकप्रियता से भला कौन नहीं परिचित है। एक पुराने ग्रीक मिथक के अनुसार देवी एथेना की कताई एवं बुनाई कला की कोई तुलना नहीं थीं। लेकिन अरैक्ने नामक गंवारू लड़की ने देवी एथेना को चुनौती देने की ठानी और इस प्रतियोगिता में देवी एथेना को हरा भी दिया¸ जिससे देवी नाराज़ हो गईं। देवी एथेना के गुस्से से डर कर अरैक्ने ने बाद में फांसी लगा ली। जब देवी एथेना का गुस्सा शांत हुआ तो उन्हें बहुत ग्लानि हुई और उन्होंने अरैक्ने के शरीर को मकड़ी में परिवर्तित कर उसे कताई एवं बुनाई की कला को बनाए रखने का वरदान दे दिया। जंतुओं के आधुनिक वर्गीकरण में भी मकड़ियों को फाइलम आर्थोपोडा के 'अरैक्नडा' वर्ग में ही रखा गया है। अरैक्नडा नाम अरैक्ने से ही प्रेरित है।
अब आइए इन किस्से–कहानियों से अलग हो कर इस बात पर गौर किया जाए कि हमारे वैज्ञानिक बंधु इन तंतुओं के व्यापारिक उत्पादन तथा उपयोग के संदर्भ में क्या–क्या जुगत भिड़ा रहे हैं। सबसे पहले तो इन तंतुओं की रासायनिक संरचना तथा मज़बूती के संबंध मे विस्तृत जानकारी लेने की कोशिश की गई। कताई उपांगों से निकालता हुआ तरल रेशम किस प्रकार ठोस तंतु का रूप ले लेता है इसकी सही एवं पूरी जानकारी तो अभी हमें नहीं है¸ फिर भी इतना अवश्य पता है कि इसके निर्माण में भाग लेने वाले फाइबर्स प्रोटीन्स के अणु इस प्रकार व्यवस्थित हो जाते हैं कि तरल रेशम ठोस रेशमी तंतु में परिवर्तित हो जाता है। कितना मज़बूत होता है यह तंतु और किस हद तक लचीला? तो जनाब दिल थाम कर बैठिए! समान मोटाई वाले स्टील के तंतु की तुलना में यह लगभग पांच गुना अधिक मज़बूत होता है तथा लचीला इतना कि तनाव बढ़ने पर इसकी लंबाई 30 से 50 प्रतिशत तक बढ़ सकती है फिर भी यह नहीं टूटता। ये तंतु जल–प्रतिरोधी भी होते हैं एवं –40 डिग्री जैसे कम ताप पर भी नहीं टूटते। वास्तव में इन तंतुओं के निमाण में ऐ डी ऍफ़ -३ ऐ डी ऍफ़ -4जैसे दो प्रकार के प्रोटीन–अणुओं का उपयोग होता है।
आधुनिक संयंत्रों एवं संसाधनों की मदद से इस तंतु की संरचना एवं गुणवत्ता के बारे में और भी विस्तृत जानकारी पाने के उद्देश्य से युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया¸ सांता बारबरा के वैज्ञानिकों ने कुछ वर्ष पूर्व जो अनुसंधान कार्य किए¸ उससे कुछ नए तथ्य सामने आए हैं।
'एटोमिक फोर्स माइक्रोस्कोपी' तथा 'मॉलिक्युलर पुलर' जैसे अत्याधुनिक संयंत्रों की सहायता से प्राप्त तस्वीरों एवं तनाव संबंधी आंकड़ों द्वारा उन्हें यह पता चला कि अन्य भार वाहक प्रोटीन्स की तुलना में इसके गुण कुछ अनूठे हैं। इस तंतु में स्फटिकीय तथा लचीलेपन का गुण एक साथ होता है। ये दोनों गुण इसके एक अणु में भी पाए जाते हैं। स्फटिकीय गुण इसे मज़बूती देता है तो लचीलापन तनाव बढ़ने पर इसे टूटने से बचाता है। जब इस पर भार देने के कारण तनाव बढ़ता है तो इसकी संरचना में प्रयुक्त प्रोटीन्स के अणुओं के बीच के बंध स्वत: खुलते जाते हैं तथा किसी स्प्रिंग की तरह इसकी लंबाई बढ़ती जाती है। भार हटा लेने पर ये बंध स्वत: जुड़ने लगते हैं एवं तंतु पुन: अपने पुराने आकार में वापस आ जाता है।
इन तंतुओं के इन्हीं अनूठे गुणों के कारण वैज्ञानिक इनमें उपयोगिता की अनगिनत संभावनाएं देख रहे हैं। सामान्य उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण के साथ–साथ चिकित्सा विज्ञान से ले कर रक्षा विज्ञान¸ यहां तक कि प्रक्षेपास्त्रों तक में इस तंतु के उपयोग की संभावनाएं देख रहे हैं वैज्ञानिक। इन तंतुओं का उपयोग पैराशूट¸ बुलेटप्रूफ जैकेट तथा सुरक्षा कवच के लिए मजबूत एवं लचीले कपड़े बनाने¸ मज़बूत तथा लचीली रस्सी एवं मछली पकड़ने के जाल बनाने¸ घावों को और भी प्रभावी ढंग से बंद करने तथा बेहतर प्लास्टर बनाने¸ सर्जरी मे काम आने वाले कृत्रिम टेंडन्स तथा लिगामेंटस बनाने में तो किया ही जा सकता है। इसके अतिरिक्त बायोइंजीनियरिंग द्वारा बायोकेमिकली अथवा बायोलाजिकली सक्रिय रासायनिक पदार्थों के साथ मिला कर इनका उपयोग ऐसे नए प्रकार के रेशमी रेशों के उत्पादन में किया जा सकता है जो स्वयं में एक सीमा तक प्रज्ञावान होंगे और तब इन नए रेशों से बने पदार्थों का उपयोग नए प्रकार की एंज़ाइमेटिक प्रतिक्रियाओं¸ रासायनिक उत्प्रेरण अथवा इलेक्टि्रॉनिक सिग्नल्स के संचरण में किया जा सकेगा।[जारी है........]
क्या ऐसा सच में हो सकेगा??
जानने के लिए कल पढ़ें लेख का अगला भाग .....

2008/04/16

मकड़ी के जाले का सदुपयोग[भाग-१]


आज प्रस्तुत है यह लेख--
मकड़ी के जाले का सदुपयोग
-------------------------------
मकडियों तथा मकड़ियों के बनाए जाल से भला कौन नहीं परिचित है? तरह–तरह के रेशमी तंतुओं के उत्पादन में दक्ष होती है ये मकड़ियां। इन रेशमी तंतुओं का उपयोग ये मकड़ियां केवल शिकार फंसाने के लिए ही नहीं करतीं बल्कि अपने बिलों के द्वार को ढकने तथा इनकी भीतरी दीवारों पर नरम स्तर के निर्माण के लिए भी करती हैं। इसके अतिरिक्त अपने अंडों को सुरक्षित रखने के लिए ककून रूपी मजबूत आवरण के निर्माण तथा फंसे शिकार के चारों ओर मजबूत शिकंजा कसने में भी ये मकड़ियां इन तंतुओं का प्रयोग करती हैं। इसका एक ही तंतु इतना मज़बूत होता है कि इसका उपयोग ये मकड़ियां रस्सी के रूप में करती हैं जिसके बल ये सर्कस के निपुण कलाकार की तरह किसी भी ऊंचाई से पलक झपकते ही बड़ी सरलता पूर्वक नीचे उतर सकती हैं। कुछ छोटी मकड़ियां इन तंतुओं की सहायता से गुब्बारे जैसी संरचना का निर्माण कर उनकी सहायता से हवा में बह सकती हैं। दर असल ये मकडियां स्वाभाविक रूप से कुशल बुनकर एवं दक्ष शिकारी हैं और अपने इस रूप में प्रकृति की कृतित्व क्षमता का अदभुत उदाहरण हैं।
मकड़ियां हमारे पर्यावरण में कीट–पतंगों की संख्या को नियंत्रित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती ही हैं¸ साथ ही इनके द्वारा उत्पादित बारीक रेशमी तंतुओं का उपयोग ऑप्टिकल उपकरणों के 'क्रॉस हेयर्स' के निर्माण में किया जाता है। इसके अतिरिक्त मकड़ियों का उपयोग कुछ औषधियों के परीक्षण में भी किया जाता है¸ कारण– इन औषधियों का प्रभाव इनके द्वारा उत्पादित रेशमी तंतुओं तथा उनसे निर्मित जाल की गुणवत्ता पर पड़ता है। इनके अतिरिक्त रेशमी तंतुओं के और भी छोटे–मोटे उपयोग तो हैं ही¸ लेकिन हमारे वैज्ञानिक बंधु इतने पर ही भला कैसे संतुष्ट रह सकते हैं? वे तो इन तंतुओं की बरीकी एवं मज़बूती पर मुग्ध हैं और इस फेर में पड़े हुए हैं कि किस प्रकार इनका उत्पादन व्यापारिक स्तर पर किया जा सके तथा इनका उपयोग नाना प्रकार के ऐसे कार्यों में किया जा सके जिससे अर्थव्यवस्था पर बोझ भी कम पड़े एवं प्रकृति में प्रदूषण की मात्रा भी कम हो जाए। इस संदर्भ में किए जा रहे अनुसंधानों तथा उनसे जुड़ी उपयोगिता संबंधी संभावनाओं की चर्चा के पहले आइए इन मकड़ियों के बारे में जरा ठीक से जान लें।
सिवाय अंटार्कटिका के यत्र–तत्र–सर्वत्र यानि इस धरती पर जीव–जंतुओं के जीवन यापन के लिए उपयुक्त लगभग सभी स्थानों¸ यहां तक कि पानी में भी इन मकड़ियों की कोई न कोई प्रजाति मिल ही जाएगी। और हो भी क्यों न? कम से कम इनकी तीस हजार प्रजातियों के बारे में तो हम वर्तमान समय में भी जानकारी रखते हैं। फाइलम आर्थोपोडा के आर्डर अरैiक्नडा से संबंधित आठ पैरों वाले इन मांसाहारी जीवों की विभिन्न प्रजातियों का आकार ०.5 मिलीमीटर से ले कर 9 सेंटीमीटर तक हो सकता है। प्रजाति चाहे कोई भी हो¸ लगभग सभी में बारीक रेशमी तंतु के उत्पादन की क्षमता अवश्य होती है¸ साथ ही अधिकांश में मुख के पास विष–ग्रंथि युक्त डंक भी पाया जाता है। अधिकांश मकड़ियों के विष प्राय: कीट–पतंगों पर ही प्रभावी होते हैं। कुछ ही प्रजातियां ऐसी हैं जिनका विष रीढ़धारी जीवों तथा मनुष्यों के लिए कुछ सीमा तक हानिकारक है।
जैैसा कि पहले पहले भी बताया जा चुका है कि मकड़ियां दक्ष शिकारी होती हैं। इसके लिए ये तरह–तरह के हथकंडे अपनाती हैं। इनके शिकार अधिकांशत: छोटे–मोटे कीट–पतंगे होते हैं। कभी ये उनके पीछे दौड़ती हैं तो कभी घात लगा कर उनका इंतज़ार भी करती हैं। लेकिन अधिकांश प्रजातियां रेशमी तंतुओं द्वारा विशिष्ट प्रकार के जाल का निर्माण कर शिकार को फंसाने में यकीन रखती हैं। फंसे शिकार को अपने विष–डंक से मार डालती हैं और फिर उसके चारों ओर पाचक–रस का स्त्राव कर उन्हें बाहर से ही पचाती हैं। इस प्रकार के बाह्य–पाचन के फलस्वरूप निर्मित पोषक–रस को ही ये चूस सकती हैं¸ क्योंकि ये ठोस भोजन नहीं ग्रहण कर सकती हैं।
अब चूंकि जाल बना कर शिकार फंसाना ही इनका मुख्य व्यवसाय है तो आइए अब देखें कि इस कार्य के लिए इनके पास क्या–क्या हरबा–हथियार हैं और कैसे इनका उपयोग बारीक तंतुओं के उत्पादन एवं लगभग अदृश्य जाल के निर्माण में किया जाता है।
[जारी है.....]

2008/04/15

गरमाती धरती और लापरवाह हम [भाग-३]

अन्तिम भाग प्रस्तुत है--:
-----------------------
अपने लिए अधिक से अधिक सुख–सुविधाओं को जुटा लेने के प्रयास में की जा रही तथाकथित वैज्ञानिक प्रगति तथा औद्योगीकरण की प्रक्रिया ही इसके मूल में है। छोटी–बड़ी औद्योगिक इकाईयों¸ फैक्टरियों तथा लाखों–करणों वाहनों के संचालन में प्रयुक्त होने वाले कार्बन युक्त ईंधन यथा कोयला¸ प्रट्रोल¸ डीज़ल आदि के दहन से उत्पन्न गरमी और उससे भी अधिक इनके अपूर्ण दहन से निकलने वाली काबर्न–डाई–ऑक्साइड तथा मोनोऑक्साइड जैसी गैसें इस धरती के ताप को बढ़ाने में मुख्य भूमिका अदा कर रही हैं। औद्योगीकरण ने शहरी करण को जन्म दिया। औद्योगिक ईकाइयों तथा आवास–विकास हेतु हमें ज़्यादा ज़मीन की ज़रूरत हुई। इसे हमने धरती की हरियाली की कीमत पर पाया। हरियाली कम होती जा रही है और शहर¸ सड़कें तथा फैक्टरियां ज़्यादा। परिणाम¸ वातावरण में अन्य प्रदूषण फैलाने वाले कारकों के अतिरिक्त काबर्न–डाई–ऑक्साइड की बढ़ती जा रही मात्रा। क्यों कि ये पेड़–पौधे ही हैं जो वातावरण से काबर्न–डाई–ऑक्साइड का उपयोग कर मूल–भूत भोजन काबोर्हाइडेट्स का संश्लेषण करते हैं तथा ऑक्सीज़न की मात्रा की वातावरण में वृद्धि करते हैं।एंटाक्टिर्का में जमी बर्फ़ की अंदरूनी परतों में फंसे हवा के बुलबुलों के विश्लेषण से यह बात सामने आई है कि आज वातावरण में काबर्न–डाई–ऑक्साइड की मात्रा पिछले साढ़े छः लाख वर्षों के दौरान किसी भी समय मापी गई अधिकतम काबर्न–डाई–ऑक्साइड की तुलना में 27 प्रतिशत अधिक है। बढ़ती काबर्न–डाई–ऑक्साइड वातावरण में शीशे का काम करती है। शीशा प्रकाश को पार तो होने देता है लेकिन ताप को नहीं। सूर्य की किरणें वातावरण में उपस्थित वायु को पार कर धरती तक तो आ जाती हैं¸ परंतु धरती से टकरा कर इसका अधिकांश हिस्सा ताप में बदल जाता है। यदि वातावरण में काबर्न–डाई–ऑक्साइड की मात्रा अधिक हो तो यह ताप उसे पार कर वातावरण के बाहर नहीं जा सकता है। इसका परिणाम धरती के सामान्य ताप में धीरे धीरे वृद्धि के रूप में सामने आता है और औद्योगिक क्रांति के बाद यही हो रहा है। औद्योगिक एवं व्यक्तिगत ऊर्जा खपत में अग्रणी होने के कारण पश्चिमी देश इस धरती को गरमाने में भी अग्रणी हैं और इनमें अमेरिका का नाम सर्वोपरि है। विकासशील तथा अविकसित देश भी इस कुकर्म में कमो–बेश अपना सहयोग दे ही रहे हैं! ऐसी परिस्थति में भला धरती को गर्म होने से कौन बचा सकता है!ऐसा भी नहीं है कि इसे कोई नहीं समझ रहा है। लेकिन अधिकतर लोग इसे समझते हुए भी नासमझ बने हुए हैं और जो इसे समझ कर इसकी रोक–थाम के उपाय के प्रयास में लगे हुए हुए हैं¸ वे मुठ्ढी भर पर्यावरण–विज्ञानी पूरे मानव समाज की मानसिकता को बदलने में अप्रभावी सिद्ध हो रहे हैं। हालांकि ऐसे जागरूक लोगों के प्रयास पूरी तरह निष्फल भी नहीं हुए हैं। ऐसे ही लोगों की सक्रियता के फलस्वरूप ही विश्व के लगभग 141 देशों ने फरवरी 2005 में जापान के क्योटो शहर में एक ऐसे दस्तावज पर हस्ताक्षर किए जिसमें इस बात पर सहमति बनी कि संसार के लगभग 40 औद्योगिक रूप से विकसित देश 2008 से 2012 के बीच धरती को गरमाने वाली सभी प्रकार की गैसों के उत्पादन में 1990 की तुलना में कम से कम 5 ।2प्रतिशत की कमी लाने का प्रयास करेंगे। इस पर हस्ताक्षर करने वाले हर देश के लिऐ वहां के प्रदूषण–स्तर के अनुपात में ऐसी गैसों के उत्पादन में कमी लाने के लिए अलग–अलग मानक स्थिर किए गए हैं। ध्यान रहे¸ इस धरती को गरमाने वाली गैसों के उत्पादन में इन देशों का हिस्सा लगभग 55 प्रतिशत है।यह सहमति पिछले सात सालों के अथक प्रयास का फल थी। इस सहमति में भारत तथा चीन जैसे विकासशील देशों को छूट दी गई थी। इसी बात को आधार बना कर ऑस्ट्रेलिया तथा विश्व के सबसे बड़े प्रदूषक देश अमेरिका ने इस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के अनुसार यह सहमति उनके देशवासियों के रोज़गार के अवसरों पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगी¸ साथ ही भारत और चीन जैसे विकासशील देशों को छूट देना पक्षपात है। अमेरिका जैसे देश का ऐसा रवैया इस दिशा में सक्रिय तथा प्रयासरत देशों तथा लोगों के लिए काफ़ी हताशापूर्ण है।हस्ताक्षर करना और बात है¸ उसे अमली जामा पहनाना और बात! अधिकांश देशों के पास न तो कोई निश्चित योजना है और न ही सुदृढ़ राज नैतिक इच्छा। अर्थतंत्र सब पर भारी है। उदाहरण के लिए¸ इस सहमति पर सबसे पहले हस्ताक्षर करने वाले में देशों में एक – कनाडा के पास इस ध्येय को पाने के लिए कोई ठोस योजना नहीं है। 1990 की तुलना में प्रदूषण के स्तर में कमी आने के बजाय यहां लगभग 20 प्रतिशत की वृद्धि ही हुई है। जापान जैसा देश भी¸ जहां इस सहमति पर हस्ताक्षर हुए थे¸ इस ध्येय को पाने के रास्ते में आने वाली कानूनी अड़चनों को कैसे दूर करेगा–इस बारे में दुविधा में है। फिर भी इनके प्रयास सराहनीय है। आज नहीं तो कल रास्ता निकल ही आएगा। कहते हैं न– जहां चाह वहां राह।इसी राह पर आगे चलते हुए 28 नवंबर 2005 से 09 दिसंबर 2005 तक कनाडा के मॉन्टि्रयाल शहर में युनाइटेड नेशन्स द्वारा प्रयोजित गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस अंतर–राष्ट्रीय गोष्ठी में 189 देशों के लगभग दस हज़ार प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। यहां मुख्य मुद्दा था– क्योटो सहमति जो 2012 तक ही प्रभावी है¸ उसे आगे कैसे बढ़ाया जाय तथा 2012 के आगे भी धरती को गरमाने वाले गैसों के उत्पादन की रोक–थाम के लिए और भी प्रभावकारी रणनीति पर विचार करना तथा यह प्रयास करना कि विश्व के सबसे बडे़ प्रदूषक देश अमेरिका को किस प्रकार इस प्रयास मे शमिल किया जाय। साथ ही इस प्रयास में विकासशील देशों की ज़िम्मेदारी भी तय की जाय। खुशी की बात है कि लगभग क्योटो सहमति पर हस्ताक्षर करने वाले सभी देश इस समझौते को 2012 के आगे भी प्रभावी रखने के लिए सहमत हो गए हैं। अमेरिका भी¸ जो इस संधि का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है¸ इस बात के लिए सहमत हो गया है कि वातावरण में प्रदूषण की रोक–थाम से जुड़ी दूरगामी योजनाओं संबंधी बात–चीत में शामिल होगा। शर्त यह है कि वह उन्हें मानने या न मानने के लिए बाध्य न हो। चलिए¸ भागते भूत की लंगोटी ही भली!अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे ये सरकारी तथा राज नैतिक प्रयास निश्चय ही दूरगामी प्रभाव डालेंगे¸ लेकिन मेरा मानना है कि धरती को गरमाने से बचाने का प्रयास तो महायज्ञ है और इसमें सभी का योगदान आवश्यक है। जब तक इस धरती का बच्चा–बच्चा इसके प्रति सजग नहीं होगा और व्यक्तिगत रूप से इस प्रयास में सहभागी नहीं होगा¸ धरती को इस महाविनाश से कोई नहीं बचा सकता। हमें समय रहते चेतना ही पड़ेगा वरना भस्मासुर की तरह विज्ञानरूपी वरदान के पीछे छिपे प्रदूषणरूपी इस हाथ को अपने सर पर रख कर नाचते हुए अपने विनाश का कारण हम स्वयं ही बन जाएंगे।
[लेख समाप्त]
[आप की प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा।]
धन्यवाद.



2008/04/14

गरमाती धरती और लापरवाह हम [भाग -२]

प्रस्तुत है भाग -२
-----------------
हमारे पर्वतों तथा ध्रुवीय प्रदेशों पर ज़मी लाखों टन बर्फ़ जब एक साथ पिघलने लगेगी तो और क्या अपेक्षा की जा सकती है। यह पिघलती बर्फ़ हमारे सागरों और महासागरों का जल–स्तर कई–कई मीटर तक ऊंचा कर सकती है जो फिर नदियों एवं अन्य जलाशयों को भी प्रभावित करेगा ही। परिणाम– चारों तरफ़ बाढ़ ही बाढ़। यह बाढ़ हमारे अधिकांश मैदानी भागों को लील जाएगी। फिर न हम बचेंगे और न ही अन्य जीव–जंतु। खैर यह तो बाद में होगा। बढ़ता ताप अभी भी अपनी रंगत छोटे–बड़े रूप में दिखा ही रहा है। आइए¸ ज़्यादा नहीं¸ बस पिछले सालों के समय–अंतरालहाल में घटी कुछ घटनाओं पर ही नज़र डाली जाए। ये घटनाएं मात्र कपोल–कल्पना नहीं हैं बल्कि विभिन्न वैज्ञानिक तथा पर्यावरण संस्थाओं द्वारा किए गए अध्ययन का निचोड़ हैं। इन पर दृष्टिपात करने के बाद आप को समझ में आ जाएगा कि बढ़ते ताप के फिलहाल क्या–क्या दुष्प्रभाव हो सकते हैं और भविष्य में ये किस प्रकार की भयानक परिस्थितियों की ओर संकेत कर रहे हैं।

*जनवरी 2005 में वल्र्ड वाइल्ड लाइफ़ फंड के एक अध्ययन के अनुसार उत्तर ध्रुवीय क्षेत्र के बर्फ़–अक्षादित क्षेत्रफल में प्रति दशक के हिसाब से 9 .2 प्रतिशत की कमी हो रही है और ऐसा विशेषकर ग्रीष्मकालीन समुद्री बर्फ़ में कमी के कारण हो रहा है। ज़ाहिर है¸ यह वातावरण ताप में वृद्धि का कुपरिणाम है। जीवधारियों पर इसका कुप्रभाव— लगभग 22¸000 पोलर बियर की जनसंख्या के विलुप्त होने का ख़तरा।

*फरवरी 2005 में प्रकाशित ब्रिटिश एंटाiक्र्टक सर्वे की एक रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण ध्रुवीय क्षेत्र अवस्थित लार्सेन बी नामक एंटाiक्र्टक आइस शीट¸ जिसके बारे में अब तक समझा जाता कि यह पत्थर के समान अविचल संरचना है¸ बढ़ती गर्मी के कारण धीरे–धीरे विघटित होना प्रारंभ कर चुकी है। इसका कुपरिणाम इस क्षेत्र के 300 – 400 ग्लैशियरों के आकार में कमी के रूप में परिलक्षित हो रहा है।

*युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के वैज्ञानिकों द्वारा जून 2005 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार साइबेरिया –क्षेत्र के सैटेलाइट द्वारा लिए गए चित्र यह दशार्ते हैं कि इस क्षेत्र में अवस्थित आiक्र्टक झीलों पर जमी लगभग स्थाई बर्फ़ धीरे–धीरे पिघल रही है¸ जिसके परिणाम स्वरूप झीलें विलुप्त होती जा रही हैं। 1973 तक इस क्षेत्र में झीलों की संख्या 10882 थी जो अब घट कर मात्र 9712 रह गई हैं। मात्र बत्तीस साल के अंतराल में ऐसी एक सौ पच्चीस झीलें पूरी तरह विलुप्त हो चुकी हैं।
रूट्गर युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों द्वारा हाल ही में किए गए एक अध्ययन के अनुसार सभी सागरों का जल–स्तर सामान्यरूप से प्रतिवर्ष 2 मी .मी. की से बढ़ रहा है। वर्तमान वृद्धि का यह दर औद्योगिक क्रांति के पहले के वर्षों की तुलना में दुगना है। यदि धरती के सामान्य ताप में वृद्धि के रोक–थाम के समुचित उपाय समय रहते न किए गए तो इस दर के बढ़ते ही जाने की संभावना अधिक है। एक अनुमान के अनुसार इस शताब्दी के अंत तक हमारे समुद्रों का जल–स्तर लगभग एक मीटर तक या उससे भी ऊंचा उठ सकता और तब भविष्य में इसके कुपरिणाम की कल्पना तो की ही जा सकती है।

*मैसाच्युसेट इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के वैज्ञानिकों द्वारा जुलाई 2005 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार पिछले तीन दशकों में ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में उठने वाले चक्रवात धीरे–धीरे काफ़ी प्रबल होते जा रहे हैं। चक्रवात में उठने वाली हवा की गति में कम से कम 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

*जुलाई 2005 में पश्चिमी भारत मे आई बाढ़ इस सदी की भयंकर बाढ़ों में एक थी। महाराष्ट्र के अधिकांश भाग इससे बुरी तरह प्रभावित हुए। मुंबई में ही मात्र 24 घंटे के अंदर 940 मिली मीटर बरसात हुई। इस बाढ़ ने लगभग 1000 लोगों की जान ले ली। धन–संपदा के नुकसान के बारे में तो कहना ही क्या। नवंबर–दिसंबर 2005 तमिल नाडु और आस–पास के क्षेत्र भयानक बरसात तथा बाढ़ के गवाह हैं। मौसम विभाग के अनुसार आने वाला समय कोई शुभ समाचार ले कर नहीं आने वाला है। और भी बारिश एवं आंधी–तूफ़ान के ही संकेत मिल रहे हैं। प्रशांत महासगर के क्षेत्र से उठने वाले तूफ़ानों की संख्या तथा उनकी प्रबलता में भी इस वर्ष काफ़ी वृद्धि हुई है और इन्होंने मिल कर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है।
*1933 के 21 आंधियों तथा 1969 के 12 तूफ़ानों की तुलना में इस वर्ष की 25 आंधियां एवं 12 तूफ़ान अप्रत्याशित कीर्तिमान ही हैं। कैट्रीना और रिटा जैसे तूफ़ानों तथा इनसे हुई तबाही को अमेरिकावासी भला जल्दी भूल सकते हैं क्या?
और तो और धरती के बढ़ते ताप का प्रभाव मानव समाज के स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है। वल्र्ड हेल्थ ऑर्गेनाज़ेशन द्वारा हाल ही में प्रस्तुत एक रिपोर्ट के अनुसार हमारे क्रिया–कलापों के फलस्वरूप वातावरण में हो रहे परिवर्तनों का कुपरिणाम¸ विशेषकर ताप–वृद्धि के कारण¸ प्रतिवर्ष लगभग 50 लाख लोगों को बीमारी के रूप में भुगतना पड़ रहा है और लगभग डेढ़ लाख लोग काल के गाल में समा जा रहे हैं।
*युनिवर्सिटी ऑफ विस्कांसिन–मेडिसन तथा वल्र्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन के वैज्ञानिकों के अनुसार त्रासदी यह है कि इस धरती को गरमाने में पश्चिमी देशों¸ विशेषकर तथाकथित विकसित देशों का मुख्य हाथ है। त्रासदी यह है कि इसका कुपरिणाम प्रशांत तथा हिंद महासागर के तटीय देशों एवं अफ्रीका के सहारा रेगिस्तान के आस–पास के देशों को¸ जहां धरती को गरमाने वाले क्रिया–कलाप न्यूनतम हैं¸ तमाम संक्रामक तथा जीवाणुजनित रोगों जैसे मलेरिया से लेकर दस्त या फिर कुपोषण जैसी स्थितियों के रूप में भुगतना पड़ रहा है। भविष्य में स्थिति के बदतर होने के ही आसार ज़्यादा हैं। कारण¸ उच्च ताप जीवाणुओं को पनपने का बेहतर सुअवसर देते हैं। साथ ही ये देश इतने गरीब हैं कि ऐसी स्थिति से निपटने के लिए न तो इनके पास साधन हैं और न ही सुविधा। करे कोई¸ भरे कोई।
स्थिति भयावह है और इसके लिए काफ़ी हद तक हमारे क्रिया- कलाप ही ज़िम्मेदार हैं.
[जारी है..........]

2008/04/13

गरमाती धरती और लापरवाह हम[भाग -१]

काल करै सो आज कर¸ आज करै सो अब।
पल में परलय होय गी¸ बहुरि करेगा कब।।


जी हां¸ अपने समय के महान समाज–सुधारक कबीर दास ने अपने
इस दोहे में संसार की क्षणभंगुरता के बारे में चेतावनी देते हुए लोगों
को अपना काम समय रहते हुए करने की सलाह दी है। हो सकता है
कि कबीर ने प्रलय का भय दिखा कर उस समय के मानव समाज
में व्याप्त आलस्य को दूर करने का प्रयास किया हो। लेकिन प्रलय की
स्थिति वास्तव में भयावह है।
प्रलय का अर्थ है इस धरती का विनाश अथवा यहां ऐसी विषम स्थितियों
का उत्पन्न होना जिसमें जीवन का फलना–फूलना असंभव हो जाए।
वैसे तो यदि हमें अपने पुराणों तथा मिथकों पर जरा भी विश्वास है
तो जल–प्लावन के रूप में प्रलय कोई नयी बात नहीं है।
ऐसे प्रलय अचानक हुए या फिर प्रकृति इनके बारे में समय–समय पर
चेतावनी देती रही¸ साथ ही इसमें मनुष्य के अपने कर्मों का भी हाथ था
या नहीं —
आज हमारे पास ऐसा कोई साधन नहीं है जो इनके बारे में सही जानकारी
दे सके। लेकिन भविष्य में कोई ऐसा प्रलय आया तो निश्चित रूप से कहा
जा सकता है कि उसमें प्रकृति के साथ–साथ मनुष्य का हाथ अवश्य होगा।
पर्यावरण में हो रहे छोटे–बड़े परिवर्तन कबीर दास की तरह हमें इसकी
चेतावनी भी दे रहे हैं तथा समय रहते सुधरने का संकेत भी।
मनुष्य इस धरती का तथाकथित सबसे बुद्धिमान एवं विचारवान प्राणी है।
इस धरती के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा कर उनका उपयोग केवल अपने
लिए करने का गुर उसे खूब आ गया है।लेकिन अपनी बुद्धि के घमंड में उसने
कबीर की बात न तब सुनी और न ही आज वह प्रकृति रूपी कबीर की
चेतावनी सुनने को तैयार है। वह तो बस तथाकथित प्रगति के रास्ते पर
आंखें मूंदे भागा चला जा रहा है।वह कालीदास की तरह जिस डाल पर बैठा है
उसी को जाने–अनजाने काटने की प्रक्रिया में लगा हुआ है और खुश हो रहा है।
आने वाले प्रलय की चेतावनी धरती के बढ़ते ताप के रूप में प्रकृतिहमें बड़े
मुखर ढंग से दे रही है। इस बढ़ते ताप का दुष्प्रभाव अंत में जल–प्लावन
ही होगा¸यह तय है। [जारी है....]
[अगला भाग कल प्रस्तुत करेंगे ]