2008/04/24

रक्तदान महादान है [अन्तिम भाग]

गतांक से आगे ........
कुछ समस्याएँ तो इन सब के बाद भी बनी रहीं ओर भी बनी हुई हैं। यथा, आकस्मिक दुर्घटना के कारण अचानक आवश्यकता से अधिक रक्त की हानि होने पर मरीज़ की जान बचाने के लिए तुरंत रक्त की आवश्यकता पड़ती है और वह भी उस ग्रुप की जो उसके लिए उचित हो। यदि समय रहते सही रक्तदाता न मिले तो समस्या गंभीर हो सकती है। सामूहिक दुर्घटना की स्थिति में तो बहुत सारे रक्त की, वह भी अलग-अलग ग्रुप वाले रक्त की आवश्यकात पड़ सकती है। इस समस्या से निपटने के लिए ब्लड बैंक की स्थापना का विचार आया। यह तभी संभव हो पाया जब 1910 में लोगों की समझ में यह बात आई कि रक्त को जमने से रोकने वाले रसायन एंटीकोआगुलेंट को रक्त में मिला कर उसे कम ताप पर रेफ्रिज़िरेटर में कुछ दिनों के लिए रखा जा सकता है। 27 मार्च 1914 में एल्बर्ट हस्टिन नामक बेल्जियन डॉक्टर ने पहली बार दाता के शरीर से पहले से निकाले रक्त में सोडियम साइट्रेट नामक एंटीकोआगुलेंट को मिला कर मरीज़ के शरीर में ट्रांसफ्यूज़ किया। लेकिन पहला ब्लड बैंक 1 जनवरी 1916 में ऑस्वाल्ड होप राबर्ट्सन द्वारा स्थापित किया गया।

इस सबके बावजूद संसार में मरीज़ों की जान बचाने के लिए रक्त का अभाव बना ही रहता है। वैज्ञानिक निरंतर इस प्रयास में लगे रहते हैं कि किस प्रकार इस समस्या से निपटा जाय। साथ ही यह भी प्रयास रहा है कि किस प्रकार लाल रुधिर कणिकाओं पर पाए जाने वाले एंटीजेंस से छुटकारा मिल सके ताकि किसी का रक्त किसी को भी दिया जा सके। १९६० के बाद इस प्रयास में काफी तेजी आई है। डेक्सट्रान जैसे संश्लेषित प्लाज़्मा सब्सटीच्यूट द्वारा रक्त का परिमाण तो बढ़ाया जा सकता है लेकिन शरीर की कोशिकाओं को रक्त पहुँचाने वाले लाल रुधिर काणिकाओं का क्या सब्स्टीच्यूट है? 1970 के दशक में जापान के वैज्ञानिकों ने फ्लूओसॉल-डीए जैसे रसायन का आविष्कार किया जो कोशिकाओं को अस्थायी तौर पर ऑक्सीजन पहुँचाने का काम कर सकते हैं।

1980 के दशक में वैज्ञानिकों को एक ब्लड ग्रुप को दूसरे में परिवर्तित करने में आंशिक सफलता मिली थी। इसी की अगली कड़ी है- युनिवर्सिटी ऑफ कोपेनहेगेन के नेतृत्व में अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों के दल ने एक ऐसी तकनीक़ का विकास किया है जिसके द्वारा किसी भी ग्रुप के आरएच निगेटिव रक्त को, चाहे वह ए ग्रुप का हो या बी का अथवा एबी का, ओ ग्रुप में परिवर्तित किया जा सकता है। यदि आपने यह आलेख ध्यान से पढ़ा है तो आप जानते ही हैं कि ओ ग्रुप का रक्त किसी को भी दिया जा सकता है। यह एक क्रांतिकारी अनुसंधान है।

1 अप्रैल 2007 के नेचर बॉयोटेक्नॉलॉजी के अंक में प्रकाशित आलेख के अनुसार लगभग 2500 बैक्टीरिया एवं फफूंदियो की प्रजातियों के जांच-पड़ताल के बाद इन वैज्ञानिकों को एलिज़ाबेथकिंगिया मेनिंज़ोसेप्टिकम एवं बैक्टीरियोऑएड्स फ्रैज़ाइलिस में पाए जाने वाले सक्षम ग्लाइकोसाइडेज़ एन्ज़ाइम्स की खोज में सफलता मिली है जो लाल रुधिर कणिकाओं की सतह से संलग्न ऑलिगोसैक्राइड्स (एंटीजेन ए अथवा बी) को बड़ी सफ़ाई से काट कर अलग कर सकते हैं और वह भी तटस्थ पीएच पर। इन एन्ज़ाइम्स की क्रियाशीलता केवल ए तथा बी एंटीजन्स तक ही सीमित है। ये आरएच एंटीजेन के विरूद्ध अप्रभावी हैं, फलत: इनके द्वारा केवल आरएच निगेटिव रक्त को ही ओ ग्रुप में बदला जा सकता है। यह सीमित सफलता भी बड़ी महत्वपूर्ण है। इसके द्वारा भी बहुतेरे मरीज़ों की जान बचाई जा सकेगी। हालांकि इस विधा का क्लीनिकल ट्रायल अभी शेष है। आशा है, जल्दी ही इसे भी पूरा कर लिया जाएगा एवं इसका लाभ शीघ्र ही मरीज़ों को मिलने लगेगा।
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आप की प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार है.अगर आप किसी विज्ञान संबंधित विषय विशेष पर लेख चाहते हैं तो कृपया
ई -मेल या प्रतिक्रिया में बताएं।
धन्यवाद।
डॉ.गुरुदयाल प्रदीप.

2008/04/23

रक्तदान महादान है [भाग -२]

गतांक से आगे -----



1905 में कार्ल लैंडस्टीनर ने अपने प्रयोगों द्वारा यह दर्शाया कि सारे मनुष्यों का रक्त सारे मनुष्यों के लिए उचित नहीं है। ऐसे प्रयासों में भी कभी-कभी मरीज़ के शरीर में दाता के रक्त की रुधिर कणिकाओं के थक्के उसी प्रकार बनते हैं जैसा लैंड्यस ने जानवरों के रक्त के बारे में दर्शाया था। 1909 में लैंडस्टीनर ने अथक प्रयास के बाद यह दर्शाया कि किस प्रकार के मनुष्य का रक्त किसे दिया जा सकता है।
उन्होंने पाया कि हमारी लाल रुधिर कणिकाओं के बाहरी सतह पर विशेष प्रकार के शर्करा ऑलिगोसैक्राइड्स से निर्मित एंटीजेन्स पाए जाते हैं। ये एंटीजन्स दो प्रकार के होते हैं- ए एवं बी। जिन लोगों की रक्तकाणिकाओं पर केवल ए एंटीजेन पाया जाता है उनके रक्त को ए ग्रुप का नाम दिया गया। इसी प्रकार केवल बी एंटीजेन वाले रक्त को बी ग्रुप तथा जिनकी रुधिर कणिकाओं पर दोनों ही प्रकार के एंटीजेन पाए जाते हैं उनके रक्त को एबी ग्रुप एवं जिनकी रक्तकणिकाओं में ये दोनों एंटीजेन्स नहीं पाए जाते उनके रक्त को ओ ग्रुप का नाम दिया गया। सामान्यतया अपने ग्रुप अथवा ओ ग्रुप वाले व्यक्ति से मिलने वाले रक्त से मरीज़ को कोई समस्या नहीं होती, लेकिन जब किसी मरीज़ को किसी अन्य ग्रुप के व्यक्ति (ए,बी या फिर एबी) रक्त दिया जाता है तो मरीज़ के शरीर में दाता के रक्त की लाल रुधिर कणिकाओं के थक्के बनने लगते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि ए का रक्त बी, एबी एवं ओ में से किसी को नहीं दिया जा सकता; बी का रक्त ए, एबी एवं ओ को नहीं दिया जा सकता और एबी का रक्त तो किसी को नहीं दिया जा सकता। परंतु एबी (युनिवर्सल रिसीपिएंट) को किसी भी ग्रुप का रक्त दिया जा सकता है तथा ओ (युनिवर्सल डोनर) किसी को भी रक्त दे सकता है।
ऐसा क्यों होता है? इसे पता लगाने के प्रयास में यह पाया गया कि किसी भी व्यक्ति के रक्त के तरल भाग प्लाज़्मा में एक अन्य रसायन एंटीबॉडी पाया जाता है। यह रसायन उस व्यक्ति की लाल रुधिर काणिकाओं के उलट होता है। ए ग्रुप में बी एंटीबॉडी मिलता है तो बी में ए एवं ओ में दोनों एंटीबॉडीज़ मिलते हैं। परंतु एबी में ऐसे किसी भी एंटीबॉडीज़ का अभाव होता है। एक ही प्रकार के एंटीजेन एवं एंटीबॉडी के बीच होने वाली प्रतिक्रिया के फलस्वरूप रुधिर कणिकाएँ आपस में चिपकने लगती हैं, जिससे इनका थक्का बनने लगता है। यही कारण है कि जब ए का रक्त बी को दिया जाता है मरीज के रक्त में उपस्थित एंटीबॉडी ए दाता के लाल रुधिर कणिकाओं पर पाए जाने एंटीबॉडी ए से प्रतिक्रिया कर उनका थक्का बनाने लगते हैं। यही बात तब भी होती है जब बी का रक्त ए को दिया जाता है। चूँकि ओ में दोनों ही एंटीबॉडीज़ मिलते हैं अत: ऐसे मरीज़ को ए,बी अथवा एबी, किसी का रक्त दिए जाने पर उसमें पाए जाने वाली रुधिर कणिकाओं का थक्का बनना स्वाभाविक है। इसके उलट, एबी में कोई भी एंटीबाडी नहीं होता अत: इसे किसी भी ग्रुप का रक्त दिया जाय थक्का नहीं बनेगा। रक्तदान के पूर्व दाता एवं मरीज़ दोनों के रक्त का ग्रुप पता करने की विधा भी खोज निकाली गई।
कार्ल लैंडस्टीनर की इस खोज ने ब्लड ट्रांसफ्युज़न के फलस्वरूप मरीज़ों को होने वाली परेशानियों एवं इनकी मृत्युदर में भारी कमी ला दी। चिकित्सा जगत के लिए यह खोज इतनी महत्वपूर्ण थी कि 1930 में लैंडस्टीनर को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बाद में आरएच फैक्टर एवं एम तथा एन जैसे एंटीजेन तथा ब्लड ग्रुप की खोज में भी इन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।[जारी है .....]

लेकिन फ़िर भी कुछ समस्याएं बनी रहीं वे क्या थीं और उनका क्या हल निकाला जा सका हम जानेंगे कल के लेख में --

आप की प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा है। अगर आप चाहते हैं की किसी ख़ास विषय पर भी लिखा जाएउस के लिए कृपया ई मेल कर के बताएं ।

धन्यवाद

2008/04/22

रक्तदान महादान है [भाग -१]


रक्तदान महादान है
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रुधिर. . .ख़ून जी हाँ, लाल रंग का यह तरल ऊतक हमारा जीवन-आधार है। हालाँकि हमारे शरीर में इसकी मात्रा मात्र चार से पाँच लीटर ही होती है, फिर भी यह हमारे लिए बहुमूल्य है। इसके बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। जीवन को चलाए रखने में यह कौन-कौन-सी भूमिका अदा करता है, इसकी लिस्ट तो लंबी-चौड़ी है फिर भी इसके कुछ मुख्य कार्य-कलापों पर दृष्टिपात करने पर ही इसके महत्व का पता चल जाता है।
शरीर की लाखों-करोड़ों कोशिकाओं को आक्सीजन तथा पचा-पचाया भोजन पहुँचा कर यह उनके ऊर्जा-स्तर को बनाए रखने से लेकर भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी उठाता है। उन कोशिकाओं से कार्बन-डाई-ऑक्साइड तथा यूरिया जैसे विषैली गैसों एवं रसायनों को निकालने के कार्य में भी यह लगा रहता है। बीमारी पैदा करने वाले कीटाणुओं से तो यह लगातार लड़ता रहता है और उनके विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता बनाए रखने में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त एक अंग में निर्मित रसायनों, यथा हॉमोन्स को शरीर की सभी कोशिकाओं तक पहुँचाने से लेकर शरीर के ताप को एकसार बनाए रखने, आदि तमाम कार्यों में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है।
इसकी संरचना में प्रयुक्त अवयवों के अनुपात में थोड़ा असंतुलन भी हमारे लिए तमाम परेशनियाँ खड़ी कर सकता है। यथा- सोडियम की ज़्यादा मात्रा रक्तचाप को बढ़ा देता है तो पानी की कमी हमें मौत के क़रीब पहुँचा सकती है और ऑयरन की कमी एनिमिक बना सकती है, आदि-आदि. . .। जब इतने से ही इतना कुछ हो सकता है तो ज़रा सोचिए, जब यह पूरा का पूरा हमारे शरीर से निकलने लगे तब क्या होगा? और दुर्भाग्य से हमारे साथ ऐसा होता ही रहता है।छोटी-मोटी चोटें तो हमारी दिनचर्या का हिस्सा है और इनसे निकलने वाले रक्त की कोई परवाह भी नहीं करता। कारण, हमारे शरीर में रक्त-निर्माण की प्रकिया शैने: शैने: सतत रूप से चलती ही रहती है। साथ ही रक्त में एक और गुण होता है और वह यह कि हवा के संपर्क में आते ही यह स्वत: जमने लगता है, जिसके कारण छोटे-मोटे घावों से निकलने वाला रक्त थोड़ी देर में स्वत: रुक जाता है। चिंता का विषय तब होता है जब हमें बड़ी एवं गंभीर चोट लगती है। ऐसी स्थिति में बड़ी रक्त-वाहिनियाँ भी चोटिल हो सकती हैं। इन वाहिनियों से निकलने वाले रक्त का वेग इतना ज़्यादा होता है कि रक्त के स्वत: जमाव की प्रक्रिया को पूरा होने का अवसर ही नहीं मिलता और एक साथ थोड़े ही समय में शरीर से रक्त की इतनी अधिक मात्रा निकल जाती है कि व्यक्ति का जीवन संकट में आ जाता है। यदि समय से उसे चिकित्सा-सुविधा न मिले तो मौत निश्चित है। चिकित्सकों का पहला प्रयास रहता है कि रक्त-प्रवाह को किस प्रकार रोका जाय और फिर यदि शरीर से रक्त की मात्रा आवश्यकता से अधिक निकल गई हो तो बाहर से किस प्रकार रक्त की आपूर्ति की जाए।
बाहर से रक्त की आपूर्ति के संबंध में प्रयास एवं प्रयोग तो सत्रहवीं सदी से ही किए जा रहे थे। इन प्रयोगों में एक जानवर का रक्त दूसरे जानवर को प्रदान करने से ले कर जानवर का रक्त मनुष्य को प्रदान करने के प्रयास शामिल हैं। इनमें से अधिकांश प्रयोग असफल रहे तो कुछ संयोगवश आंशिक रूप से सफल भी रहे। 1885 में लैंड्यस ने अपने प्रयोंगों से यह दर्शाया कि जानवरों का रक्त मनुष्यों के लिए सर्वथा अनुचित है। कारण, मनुष्य के शरीर में जानवर के रक्त में पाए जाने वाली लाल रुधिर कणिकाओं के थक्के बन जाते है एवं ये थक्के रक्त वहिनियों को अवरुद्ध कर देते हैं जिससे मरीज़ मर सकता है। ऐसे प्रयोगों के फलस्वरूप, मनुष्य के लिए मनुष्य का रक्त ही सर्वथा उचित है, यह बात तो चिकित्सकों ने उन्नीसवीं सदी में ही समझ ली थी और एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर से रक्त प्राप्त कर ऐसे मरीज़ के शरीर में रक्त आपूर्ति की विधा भी विकसित कर ली गई थी एवं इसका उपयोग भी किया जा रहा था। लेकिन इसमें भी एक पेंच देखा गया- कभी तो इस प्रकार के रक्तदान के बाद मरीज़ बच जाते थे, तो कभी नहीं।


[जारी है...................]


-आगे क्या हुआ यह जानने के लिए इस लेख का अगला भाग कल पढिये ....

2008/04/17

मकडी के जाल का सदुपयोग [अन्तिम भाग]

कल हम ने जाना था कि इन नए रेशों से बने पदार्थों का उपयोग नए प्रकार की एंज़ाइमेटिक प्रतिक्रियाओं¸ रासायनिक उत्प्रेरण अथवा इलेक्टि्रॉनिक सिग्नल्स के संचरण में किया जा सकेगा।
लेकिन ये सारे सपने तभी साकार हो सकते हैं जब हम इन तंतुओं या फिर इनसे मिलते–जुलते तंतुओं का उत्पादन वृहत पैमाने पर व्यापारिक रूप से कर सकें। इस संदर्भ में सभी संभावनाओं की जांच–पड़ताल की जा रही है। इनमें से कुछ को लागू करना संभव ही नहीं है तो कुछ में हमें फिलहाल आंशिक सफलता ही मिल पाई है¸ परंतु भविष्य में पूर्ण सफलता की संभावना प्रबल है।
इनमें से सबसे अच्छा और आसान तरीका तो इन मकड़ियों को पाल कर उनसे उसी प्रकार रेशम प्राप्त करना था¸ जिस प्रकार हम रेशम के कीडों को शहतूत के पत्ते पर पाल कर उनसे रेशम प्राप्त करते हैं। लेकिन मकड़ियां स्वभावत: शिकारी तथा अपने अधिकार क्षेत्र पर कब्ज़े के प्रति सजग होती हैं। साथ ही ये प्राय: स्वजाति–भक्षक भी होती हैं। अत: इन्हें पालना तथा इनसे रेशम प्राप्त करना संभव नहीं है।
दूसरी संभावना है– इन तंतुओं का कृत्रिम उत्पादन। इस कार्य के लिए हमें चाहिए ऐसी व्यवस्था जहां इस प्रकार के रेशमी तंतुओं के निर्माण में प्रयुक्त प्रोटीन्स या उससे मिलते–जुलते अन्य रासायनिक अणुओं का वृहत स्तर पर कृत्रिम रूप से उत्पादन किया जा सके तथा ऐसी कताई मिले जहां इन अणुओं को संयोजित कर मकड़ियों के रेशमी तंतुओ के समान गुणवत्ता वाले तंतुओं का उत्पादन किया जा सके। इस दिशा में काफ़ी समय से किए जा रहे प्रयासों का फल आंशिक रूप से ही सही¸ अब वैज्ञानिकों को मिलने लगा है। इसका मुख्य श्रेय जेनेटिक इंजीनियरिंग तथा बायोटेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में हो रहे त्वरित विकास को दिया जाना चाहिए।
मकड़ियों में रेशम के उत्पादन में प्रयुक्त प्रोटीन्स के अणुओं के संश्लेषण करने वाले जीन्स की पहचान कर उसे जेनेटिक इंजीनियरिंग जैसी तकनीक की मदद से अन्य जैव कोशिकाओं या जीवों में स्थानांतरित कर क्रित्रम रूप से ऐसे प्रोटीन्स के संश्लेषण में आंशिक रूप से सफलता मिली है। यह विधा इतनी आसान नहीं है। कारण¸ ऐसे जीन्स काफ़ी जटिल संरचना वाले हैं जिनमें एक ही प्रकार के नाइट्रोजन बेसेज़ की श्रृंखला बार–बार दुहराई गई है तथा ये जीन्स प्रोटीन संश्लेषण में हमारी कोशिकाओं से भिन्न प्रकार के कोडॉन तंत्र का उपयोग करते हैं।
फिलहाल हाल के कुछ प्रयोगों में इन जीन्स के कुछ भाग को इiश्रशिया कोलाई जैसे बैक्टीरिया¸ कुछ स्तनधारी जीवों तथा कीटों की कोशिकाओं में स्थानांतरित कर ऐसे प्रोटीन्स के संश्लेषण में सफलता हाथ लगी है। परंतु ऐसे प्रोटीन्स गुणवत्ता में प्राकृतिक प्रोटीन्स की बराबरी नहीं कर सकते तथा इनका उत्पादन बहुत थोड़ी मात्रा में हो रहा है। इन प्रोटीन्स को तंतु के रूप में परिवर्तित करना एक अलग चुनौती है। प्रयोगशाला में इस प्रकार संश्लेषित प्रोटीन्स के अणुओं द्वारा सिलिकॉन के सूक्ष्म कताई यंत्रो द्वारा जिस प्रकार के तंतुओं का निर्माण हो पाया है¸ वे प्रकृति रूप से उत्पादित 2 .5 मिलीमीटर– 4 मिलीमीटर व्यास वाले प्राकृतिक रेशम के तंतुओं की तुलना में काफ़ी मोटे— लगभग 10 से 60 मिलीमीटर व्यास वाले हैं।
इस संदर्भ में इज़राइल के हेब्यु युनिवर्सिटी¸ म्युनिक युनिवर्सिटी तथा ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के कुछ वैज्ञानिकों के दावे का उल्लेख करना प्रासंगिक भी है एवं उत्साहवर्धक भी। 'करेंट बायोलॉजी' के 23 नवंबर 2004 के अंक में प्रकाशित एक लेख में वैज्ञानिकों की इस टीम ने दावा किया है कि जेनेटिक इंजीनियरिंग की जटिल तकनीकि का उपयोग कर 'फाल आर्मी वर्म' नामक कीट के कैटरपिलर लार्वा से प्राप्त कोशिकाओं के लैब कल्चर में न केवल इच्छित प्रोटीन्स के अणुओं का संश्लेषण करने में सफलता पाई गई है¸ बल्कि इन कोशिकाओं में इनसे रेशमी तंतुओं के निर्माण में भी कुछ हद तक सफलता प्राप्त कर ली गई है।
सबसे पहले तो इन लोगों ने 'गाडेर्न स्पाइडर' के जीन्स के उन अंशों को अलग किया जो मकड़ी के रेशमी तंतु के उत्पादन में प्रयुक्त प्रोटीन के अणुओं – डी ऍफ़-३ तथा ऐ डीऍफ़ -4के संश्लेषण के लिए आवश्यक हैं। फिर इन्हें जेनेटिक इंजीनियरिंग की तकनीक द्वारा कीटों को संक्रमित करने वाले 'बैकुलोवाइरस' में स्थानांतरित किया गया। तत्पश्चात इन ट्रांसजेनिक वाइरसेज़ को 'फाल आर्मी वर्म' नामक कीट के कैटरपिलर से प्राप्त कोशिकाओं के लैब कल्चर में स्थानांतरित कर वहां प्रवर्धन के लिए छोड़ दिया गया। चूंकि मकड़ियां एवं कीट दोनों ही एक ही फाइलम 'आर्थोपोडा' से संबद्ध हैं इसलिए दोनों के जीनोम में काफ़ी–कुछ समानता होती है। इस कारण इन लोगों ने सोचा कि ये जीन्स इस कीट की कोशिकाओं द्वारा आसानी से ग्रहण कर लिए जाएंगे और संभवत: इच्छित गुणवत्ता वाले दोनों प्रकार के प्रोटीन्स के अणुओं का संश्लेषण इन कोशिकाओं में हो पाएगा। और वास्तव में न केवल ऐसा हुआ बल्कि इन कोशिकाओं में इनसे रेशमी तंतुओं का निर्माण भी होने लगा। बस थोड़ा सा अंतर यह हुआ कि इन कोशिकाओं में निर्मित तंतुओं मे केवल ऐ डी ऍफ़ -४ ही उपयोग हुआ¸ ऐ डी ऍफ़ -३ घुलनशील अवस्था में कोशिका द्रव में ही रह गया। कुछ भी हो¸ इस प्रकार निर्मित तंतु की मोटाई लगभग प्राकृतिक तंतु के समान ही है और कुछ गुणों में ये उनसे बीस भी हैं। इनमें रासायनिक प्रतिरोध क्षमता अधिक है।
इस अनुसंधान के बाद यह संभावना प्रबल हो गई है कि भविष्य मे इस प्रकार के रेशमी तंतुओं का व्यापारिक स्तर पर वृहत रूप में उत्पादन किया जा सकता है। इस अनुसंधानकार्य से जुड़ी 'यिसुम रिसर्च डेवलपमेंट कंपनी' ने तो इसके व्यापारीकरण की दिशा में ध्यान केंद्रित करना प्रारंभ कर दिया है। तो जनाब तैयार हो जाइए 'स्पाइडर मैन' बनने के लिए! भले ही वैसा नहीं जैसा इसी नाम के कॉमिक तथा फिल्मों में दिखाया जाता है।


फिर भी कम से कम इसके रेशम से बने समानों के उपभोक्ता के रूप में तो आप 'स्पाइडर मैन' बन ही सकते हैं।

-डॉ. गुरुदयाल प्रदीप

मकड़ी के जाले का सदुपयोग[भाग-२ ]

गतांक से आगे.....
अब चूंकि जाल बना कर शिकार फंसाना ही इनका मुख्य व्यवसाय है तो आइए अब देखें कि इस कार्य के लिए इनके पास क्या–क्या हरबा–हथियार हैं और कैसे इनका उपयोग बारीक तंतुओं के उत्पादन एवं लगभग अदृश्य जाल के निर्माण में किया जाता है। इनके उदर में बहुतेरी रेशम उत्पादक ग्रंथियां होती हैं जिनमें तरल फाइबर्स प्रोटीन्स के रूप में रेशम का उत्पादन होता रहता है। सभी प्रजातियों में कुल मिला कर 7 प्रकार की रेशम उत्पादक ग्रंथिया पाई गई हैं परंतु किसी भी एक प्रजाति में सातों प्रकार की गं`थियां नहीं पाई जाती। ये ग्रंथियां मकड़ी के पश्च भाग में गुदा द्वार के नीचे अवस्थित पतली ऊंगलियों के रूप में चार से आठ 'कताई उपांगों' में खुलती हैं। इन कताई उपांगों के मुख पर हजारों नलिकाएं होती हैं। रेशम–ग्रंथियों से तरल प्रोटीन्स के रूप में निकला रेशम जब इन नलिकाओं से गुज़रता है तो पॉलीमराइज़ हो कर ठोस रेशम के तंतु मे परिवर्तित हो जाता है।
इन रेशमी तंतुओं का उपयोग ये मकड़ियां जाल बनाने में बड़ी मितव्यता तथा कलात्मक ढंग से करती हैं। इनके बनाए जाल लगभग वृत्ताकार होते हैं। सबसे पहले तो ये एक अकेले परंतु तुलनात्मक दृष्टि से काफ़ी मोटे तथा मज़बूत रेशमी धागे की कताई करती हैं। इस धागे का सिरा हवा में तब तक खुला छोड़ दिया जाता है जब तक वह किसी पेड़ की टहनी या किसी अन्य ठोस आधार पर चिपक नहीं जाता। इस आधारभूत धागे को सही ढंग से व्यवस्थित करने के बाद त्रिज्जीय तंतुओं की कताई की जाती है जिनके द्वारा आधारभूत तंतुओं को जाल के मध्य स्थित संयोजन क्षेत्र से जोड़ा जाता है। तत्पश्चात इन त्रिज्जीय तंतुओं को न चिपकने वाले तंतुओं द्वारा कुंडलाकार ढंग से अस्थाई रूप से जोड़ा जाता है ताकि ये त्रिज्जीय तंतु अपने स्थान पर बने रह सकें। अंत में इन त्रिज्जीय तंतुओं को पतले परंतु चिपचिपे तंतुओं द्वारा पुन: कुंडलाकार रूप में जोड़ कर पुराने अस्थाई कुंडलाकार तंतुओं को हटा लिया जाता है। इन चिपचिपे कुंडलाकार तंतुओं से बना जाल शिकार फंसाने के काम आता है।
बड़ी मकडियां प्राय: इस जाल के केन्द्र में इस प्रकार बैठती हैं जिससे उनके प्रत्येक पैर न चिपकने वाले अलग–अलग त्रिज्जीय तंतुओं पर सधे रहें। जब भी शिकार फंस कर छटपटाता है¸ जाल के तंतुओं में कंपन होने लगता है जिसे मकड़ी त्रिज्जीय तंतुओं पर अपने पैर होने के कारण आसानी से महसूस कर लेती है। फिर तेजी से दौड़ कर शिकार को विष दंश से मार डालती है अथवा तेजी से उसके चारों ओर रेशमी तंतुओं का जाल बुन कर उसे निiष्क्रय कर देती हैं। छोटे आकार की मकड़ियां जाल के किनारे या उसके आस–पास घात लगा कर बैठी रहती हैं। हर प्रजाति के जाल में कुछ न कुछ अपनी विशिष्टता होती ही है। मकड़ियां अक्सर पुराने जाल के रेशम को खाती भी रहती हैं। क्यों कि निर्माण के एक दिन के अंदर ही इसमें प्रयुक्त रेशमी तंतुओं का चिपचिपापन हवा तथा धूल के कारण समाप्त होने लगता है। पुराने जाल के रेशम को खा कर उसे पचा लिया जाता है और संभवत: नए तंतु के उत्पादन में कच्चे माल की तरह इसका उपयोग फिर से किया जाता है। मितव्ययता का यह एक नायाब नमूना है।
रेशमी तंतुओं के उत्पादन एवं जाल बुनने की कला में निपुणता के कारण काल्पनिक कहानियों तथा मिथकों में इन्हें आदिकाल से ले कर आज तक स्थान मिलता रहा है। 'स्पाइडर मैन' के नाम से कॉमिक्स¸ कार्टून्स तथा फिल्मों की लोकप्रियता से भला कौन नहीं परिचित है। एक पुराने ग्रीक मिथक के अनुसार देवी एथेना की कताई एवं बुनाई कला की कोई तुलना नहीं थीं। लेकिन अरैक्ने नामक गंवारू लड़की ने देवी एथेना को चुनौती देने की ठानी और इस प्रतियोगिता में देवी एथेना को हरा भी दिया¸ जिससे देवी नाराज़ हो गईं। देवी एथेना के गुस्से से डर कर अरैक्ने ने बाद में फांसी लगा ली। जब देवी एथेना का गुस्सा शांत हुआ तो उन्हें बहुत ग्लानि हुई और उन्होंने अरैक्ने के शरीर को मकड़ी में परिवर्तित कर उसे कताई एवं बुनाई की कला को बनाए रखने का वरदान दे दिया। जंतुओं के आधुनिक वर्गीकरण में भी मकड़ियों को फाइलम आर्थोपोडा के 'अरैक्नडा' वर्ग में ही रखा गया है। अरैक्नडा नाम अरैक्ने से ही प्रेरित है।
अब आइए इन किस्से–कहानियों से अलग हो कर इस बात पर गौर किया जाए कि हमारे वैज्ञानिक बंधु इन तंतुओं के व्यापारिक उत्पादन तथा उपयोग के संदर्भ में क्या–क्या जुगत भिड़ा रहे हैं। सबसे पहले तो इन तंतुओं की रासायनिक संरचना तथा मज़बूती के संबंध मे विस्तृत जानकारी लेने की कोशिश की गई। कताई उपांगों से निकालता हुआ तरल रेशम किस प्रकार ठोस तंतु का रूप ले लेता है इसकी सही एवं पूरी जानकारी तो अभी हमें नहीं है¸ फिर भी इतना अवश्य पता है कि इसके निर्माण में भाग लेने वाले फाइबर्स प्रोटीन्स के अणु इस प्रकार व्यवस्थित हो जाते हैं कि तरल रेशम ठोस रेशमी तंतु में परिवर्तित हो जाता है। कितना मज़बूत होता है यह तंतु और किस हद तक लचीला? तो जनाब दिल थाम कर बैठिए! समान मोटाई वाले स्टील के तंतु की तुलना में यह लगभग पांच गुना अधिक मज़बूत होता है तथा लचीला इतना कि तनाव बढ़ने पर इसकी लंबाई 30 से 50 प्रतिशत तक बढ़ सकती है फिर भी यह नहीं टूटता। ये तंतु जल–प्रतिरोधी भी होते हैं एवं –40 डिग्री जैसे कम ताप पर भी नहीं टूटते। वास्तव में इन तंतुओं के निमाण में ऐ डी ऍफ़ -३ ऐ डी ऍफ़ -4जैसे दो प्रकार के प्रोटीन–अणुओं का उपयोग होता है।
आधुनिक संयंत्रों एवं संसाधनों की मदद से इस तंतु की संरचना एवं गुणवत्ता के बारे में और भी विस्तृत जानकारी पाने के उद्देश्य से युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया¸ सांता बारबरा के वैज्ञानिकों ने कुछ वर्ष पूर्व जो अनुसंधान कार्य किए¸ उससे कुछ नए तथ्य सामने आए हैं।
'एटोमिक फोर्स माइक्रोस्कोपी' तथा 'मॉलिक्युलर पुलर' जैसे अत्याधुनिक संयंत्रों की सहायता से प्राप्त तस्वीरों एवं तनाव संबंधी आंकड़ों द्वारा उन्हें यह पता चला कि अन्य भार वाहक प्रोटीन्स की तुलना में इसके गुण कुछ अनूठे हैं। इस तंतु में स्फटिकीय तथा लचीलेपन का गुण एक साथ होता है। ये दोनों गुण इसके एक अणु में भी पाए जाते हैं। स्फटिकीय गुण इसे मज़बूती देता है तो लचीलापन तनाव बढ़ने पर इसे टूटने से बचाता है। जब इस पर भार देने के कारण तनाव बढ़ता है तो इसकी संरचना में प्रयुक्त प्रोटीन्स के अणुओं के बीच के बंध स्वत: खुलते जाते हैं तथा किसी स्प्रिंग की तरह इसकी लंबाई बढ़ती जाती है। भार हटा लेने पर ये बंध स्वत: जुड़ने लगते हैं एवं तंतु पुन: अपने पुराने आकार में वापस आ जाता है।
इन तंतुओं के इन्हीं अनूठे गुणों के कारण वैज्ञानिक इनमें उपयोगिता की अनगिनत संभावनाएं देख रहे हैं। सामान्य उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण के साथ–साथ चिकित्सा विज्ञान से ले कर रक्षा विज्ञान¸ यहां तक कि प्रक्षेपास्त्रों तक में इस तंतु के उपयोग की संभावनाएं देख रहे हैं वैज्ञानिक। इन तंतुओं का उपयोग पैराशूट¸ बुलेटप्रूफ जैकेट तथा सुरक्षा कवच के लिए मजबूत एवं लचीले कपड़े बनाने¸ मज़बूत तथा लचीली रस्सी एवं मछली पकड़ने के जाल बनाने¸ घावों को और भी प्रभावी ढंग से बंद करने तथा बेहतर प्लास्टर बनाने¸ सर्जरी मे काम आने वाले कृत्रिम टेंडन्स तथा लिगामेंटस बनाने में तो किया ही जा सकता है। इसके अतिरिक्त बायोइंजीनियरिंग द्वारा बायोकेमिकली अथवा बायोलाजिकली सक्रिय रासायनिक पदार्थों के साथ मिला कर इनका उपयोग ऐसे नए प्रकार के रेशमी रेशों के उत्पादन में किया जा सकता है जो स्वयं में एक सीमा तक प्रज्ञावान होंगे और तब इन नए रेशों से बने पदार्थों का उपयोग नए प्रकार की एंज़ाइमेटिक प्रतिक्रियाओं¸ रासायनिक उत्प्रेरण अथवा इलेक्टि्रॉनिक सिग्नल्स के संचरण में किया जा सकेगा।[जारी है........]
क्या ऐसा सच में हो सकेगा??
जानने के लिए कल पढ़ें लेख का अगला भाग .....

2008/04/16

मकड़ी के जाले का सदुपयोग[भाग-१]


आज प्रस्तुत है यह लेख--
मकड़ी के जाले का सदुपयोग
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मकडियों तथा मकड़ियों के बनाए जाल से भला कौन नहीं परिचित है? तरह–तरह के रेशमी तंतुओं के उत्पादन में दक्ष होती है ये मकड़ियां। इन रेशमी तंतुओं का उपयोग ये मकड़ियां केवल शिकार फंसाने के लिए ही नहीं करतीं बल्कि अपने बिलों के द्वार को ढकने तथा इनकी भीतरी दीवारों पर नरम स्तर के निर्माण के लिए भी करती हैं। इसके अतिरिक्त अपने अंडों को सुरक्षित रखने के लिए ककून रूपी मजबूत आवरण के निर्माण तथा फंसे शिकार के चारों ओर मजबूत शिकंजा कसने में भी ये मकड़ियां इन तंतुओं का प्रयोग करती हैं। इसका एक ही तंतु इतना मज़बूत होता है कि इसका उपयोग ये मकड़ियां रस्सी के रूप में करती हैं जिसके बल ये सर्कस के निपुण कलाकार की तरह किसी भी ऊंचाई से पलक झपकते ही बड़ी सरलता पूर्वक नीचे उतर सकती हैं। कुछ छोटी मकड़ियां इन तंतुओं की सहायता से गुब्बारे जैसी संरचना का निर्माण कर उनकी सहायता से हवा में बह सकती हैं। दर असल ये मकडियां स्वाभाविक रूप से कुशल बुनकर एवं दक्ष शिकारी हैं और अपने इस रूप में प्रकृति की कृतित्व क्षमता का अदभुत उदाहरण हैं।
मकड़ियां हमारे पर्यावरण में कीट–पतंगों की संख्या को नियंत्रित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती ही हैं¸ साथ ही इनके द्वारा उत्पादित बारीक रेशमी तंतुओं का उपयोग ऑप्टिकल उपकरणों के 'क्रॉस हेयर्स' के निर्माण में किया जाता है। इसके अतिरिक्त मकड़ियों का उपयोग कुछ औषधियों के परीक्षण में भी किया जाता है¸ कारण– इन औषधियों का प्रभाव इनके द्वारा उत्पादित रेशमी तंतुओं तथा उनसे निर्मित जाल की गुणवत्ता पर पड़ता है। इनके अतिरिक्त रेशमी तंतुओं के और भी छोटे–मोटे उपयोग तो हैं ही¸ लेकिन हमारे वैज्ञानिक बंधु इतने पर ही भला कैसे संतुष्ट रह सकते हैं? वे तो इन तंतुओं की बरीकी एवं मज़बूती पर मुग्ध हैं और इस फेर में पड़े हुए हैं कि किस प्रकार इनका उत्पादन व्यापारिक स्तर पर किया जा सके तथा इनका उपयोग नाना प्रकार के ऐसे कार्यों में किया जा सके जिससे अर्थव्यवस्था पर बोझ भी कम पड़े एवं प्रकृति में प्रदूषण की मात्रा भी कम हो जाए। इस संदर्भ में किए जा रहे अनुसंधानों तथा उनसे जुड़ी उपयोगिता संबंधी संभावनाओं की चर्चा के पहले आइए इन मकड़ियों के बारे में जरा ठीक से जान लें।
सिवाय अंटार्कटिका के यत्र–तत्र–सर्वत्र यानि इस धरती पर जीव–जंतुओं के जीवन यापन के लिए उपयुक्त लगभग सभी स्थानों¸ यहां तक कि पानी में भी इन मकड़ियों की कोई न कोई प्रजाति मिल ही जाएगी। और हो भी क्यों न? कम से कम इनकी तीस हजार प्रजातियों के बारे में तो हम वर्तमान समय में भी जानकारी रखते हैं। फाइलम आर्थोपोडा के आर्डर अरैiक्नडा से संबंधित आठ पैरों वाले इन मांसाहारी जीवों की विभिन्न प्रजातियों का आकार ०.5 मिलीमीटर से ले कर 9 सेंटीमीटर तक हो सकता है। प्रजाति चाहे कोई भी हो¸ लगभग सभी में बारीक रेशमी तंतु के उत्पादन की क्षमता अवश्य होती है¸ साथ ही अधिकांश में मुख के पास विष–ग्रंथि युक्त डंक भी पाया जाता है। अधिकांश मकड़ियों के विष प्राय: कीट–पतंगों पर ही प्रभावी होते हैं। कुछ ही प्रजातियां ऐसी हैं जिनका विष रीढ़धारी जीवों तथा मनुष्यों के लिए कुछ सीमा तक हानिकारक है।
जैैसा कि पहले पहले भी बताया जा चुका है कि मकड़ियां दक्ष शिकारी होती हैं। इसके लिए ये तरह–तरह के हथकंडे अपनाती हैं। इनके शिकार अधिकांशत: छोटे–मोटे कीट–पतंगे होते हैं। कभी ये उनके पीछे दौड़ती हैं तो कभी घात लगा कर उनका इंतज़ार भी करती हैं। लेकिन अधिकांश प्रजातियां रेशमी तंतुओं द्वारा विशिष्ट प्रकार के जाल का निर्माण कर शिकार को फंसाने में यकीन रखती हैं। फंसे शिकार को अपने विष–डंक से मार डालती हैं और फिर उसके चारों ओर पाचक–रस का स्त्राव कर उन्हें बाहर से ही पचाती हैं। इस प्रकार के बाह्य–पाचन के फलस्वरूप निर्मित पोषक–रस को ही ये चूस सकती हैं¸ क्योंकि ये ठोस भोजन नहीं ग्रहण कर सकती हैं।
अब चूंकि जाल बना कर शिकार फंसाना ही इनका मुख्य व्यवसाय है तो आइए अब देखें कि इस कार्य के लिए इनके पास क्या–क्या हरबा–हथियार हैं और कैसे इनका उपयोग बारीक तंतुओं के उत्पादन एवं लगभग अदृश्य जाल के निर्माण में किया जाता है।
[जारी है.....]

2008/04/15

गरमाती धरती और लापरवाह हम [भाग-३]

अन्तिम भाग प्रस्तुत है--:
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अपने लिए अधिक से अधिक सुख–सुविधाओं को जुटा लेने के प्रयास में की जा रही तथाकथित वैज्ञानिक प्रगति तथा औद्योगीकरण की प्रक्रिया ही इसके मूल में है। छोटी–बड़ी औद्योगिक इकाईयों¸ फैक्टरियों तथा लाखों–करणों वाहनों के संचालन में प्रयुक्त होने वाले कार्बन युक्त ईंधन यथा कोयला¸ प्रट्रोल¸ डीज़ल आदि के दहन से उत्पन्न गरमी और उससे भी अधिक इनके अपूर्ण दहन से निकलने वाली काबर्न–डाई–ऑक्साइड तथा मोनोऑक्साइड जैसी गैसें इस धरती के ताप को बढ़ाने में मुख्य भूमिका अदा कर रही हैं। औद्योगीकरण ने शहरी करण को जन्म दिया। औद्योगिक ईकाइयों तथा आवास–विकास हेतु हमें ज़्यादा ज़मीन की ज़रूरत हुई। इसे हमने धरती की हरियाली की कीमत पर पाया। हरियाली कम होती जा रही है और शहर¸ सड़कें तथा फैक्टरियां ज़्यादा। परिणाम¸ वातावरण में अन्य प्रदूषण फैलाने वाले कारकों के अतिरिक्त काबर्न–डाई–ऑक्साइड की बढ़ती जा रही मात्रा। क्यों कि ये पेड़–पौधे ही हैं जो वातावरण से काबर्न–डाई–ऑक्साइड का उपयोग कर मूल–भूत भोजन काबोर्हाइडेट्स का संश्लेषण करते हैं तथा ऑक्सीज़न की मात्रा की वातावरण में वृद्धि करते हैं।एंटाक्टिर्का में जमी बर्फ़ की अंदरूनी परतों में फंसे हवा के बुलबुलों के विश्लेषण से यह बात सामने आई है कि आज वातावरण में काबर्न–डाई–ऑक्साइड की मात्रा पिछले साढ़े छः लाख वर्षों के दौरान किसी भी समय मापी गई अधिकतम काबर्न–डाई–ऑक्साइड की तुलना में 27 प्रतिशत अधिक है। बढ़ती काबर्न–डाई–ऑक्साइड वातावरण में शीशे का काम करती है। शीशा प्रकाश को पार तो होने देता है लेकिन ताप को नहीं। सूर्य की किरणें वातावरण में उपस्थित वायु को पार कर धरती तक तो आ जाती हैं¸ परंतु धरती से टकरा कर इसका अधिकांश हिस्सा ताप में बदल जाता है। यदि वातावरण में काबर्न–डाई–ऑक्साइड की मात्रा अधिक हो तो यह ताप उसे पार कर वातावरण के बाहर नहीं जा सकता है। इसका परिणाम धरती के सामान्य ताप में धीरे धीरे वृद्धि के रूप में सामने आता है और औद्योगिक क्रांति के बाद यही हो रहा है। औद्योगिक एवं व्यक्तिगत ऊर्जा खपत में अग्रणी होने के कारण पश्चिमी देश इस धरती को गरमाने में भी अग्रणी हैं और इनमें अमेरिका का नाम सर्वोपरि है। विकासशील तथा अविकसित देश भी इस कुकर्म में कमो–बेश अपना सहयोग दे ही रहे हैं! ऐसी परिस्थति में भला धरती को गर्म होने से कौन बचा सकता है!ऐसा भी नहीं है कि इसे कोई नहीं समझ रहा है। लेकिन अधिकतर लोग इसे समझते हुए भी नासमझ बने हुए हैं और जो इसे समझ कर इसकी रोक–थाम के उपाय के प्रयास में लगे हुए हुए हैं¸ वे मुठ्ढी भर पर्यावरण–विज्ञानी पूरे मानव समाज की मानसिकता को बदलने में अप्रभावी सिद्ध हो रहे हैं। हालांकि ऐसे जागरूक लोगों के प्रयास पूरी तरह निष्फल भी नहीं हुए हैं। ऐसे ही लोगों की सक्रियता के फलस्वरूप ही विश्व के लगभग 141 देशों ने फरवरी 2005 में जापान के क्योटो शहर में एक ऐसे दस्तावज पर हस्ताक्षर किए जिसमें इस बात पर सहमति बनी कि संसार के लगभग 40 औद्योगिक रूप से विकसित देश 2008 से 2012 के बीच धरती को गरमाने वाली सभी प्रकार की गैसों के उत्पादन में 1990 की तुलना में कम से कम 5 ।2प्रतिशत की कमी लाने का प्रयास करेंगे। इस पर हस्ताक्षर करने वाले हर देश के लिऐ वहां के प्रदूषण–स्तर के अनुपात में ऐसी गैसों के उत्पादन में कमी लाने के लिए अलग–अलग मानक स्थिर किए गए हैं। ध्यान रहे¸ इस धरती को गरमाने वाली गैसों के उत्पादन में इन देशों का हिस्सा लगभग 55 प्रतिशत है।यह सहमति पिछले सात सालों के अथक प्रयास का फल थी। इस सहमति में भारत तथा चीन जैसे विकासशील देशों को छूट दी गई थी। इसी बात को आधार बना कर ऑस्ट्रेलिया तथा विश्व के सबसे बड़े प्रदूषक देश अमेरिका ने इस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के अनुसार यह सहमति उनके देशवासियों के रोज़गार के अवसरों पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगी¸ साथ ही भारत और चीन जैसे विकासशील देशों को छूट देना पक्षपात है। अमेरिका जैसे देश का ऐसा रवैया इस दिशा में सक्रिय तथा प्रयासरत देशों तथा लोगों के लिए काफ़ी हताशापूर्ण है।हस्ताक्षर करना और बात है¸ उसे अमली जामा पहनाना और बात! अधिकांश देशों के पास न तो कोई निश्चित योजना है और न ही सुदृढ़ राज नैतिक इच्छा। अर्थतंत्र सब पर भारी है। उदाहरण के लिए¸ इस सहमति पर सबसे पहले हस्ताक्षर करने वाले में देशों में एक – कनाडा के पास इस ध्येय को पाने के लिए कोई ठोस योजना नहीं है। 1990 की तुलना में प्रदूषण के स्तर में कमी आने के बजाय यहां लगभग 20 प्रतिशत की वृद्धि ही हुई है। जापान जैसा देश भी¸ जहां इस सहमति पर हस्ताक्षर हुए थे¸ इस ध्येय को पाने के रास्ते में आने वाली कानूनी अड़चनों को कैसे दूर करेगा–इस बारे में दुविधा में है। फिर भी इनके प्रयास सराहनीय है। आज नहीं तो कल रास्ता निकल ही आएगा। कहते हैं न– जहां चाह वहां राह।इसी राह पर आगे चलते हुए 28 नवंबर 2005 से 09 दिसंबर 2005 तक कनाडा के मॉन्टि्रयाल शहर में युनाइटेड नेशन्स द्वारा प्रयोजित गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस अंतर–राष्ट्रीय गोष्ठी में 189 देशों के लगभग दस हज़ार प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। यहां मुख्य मुद्दा था– क्योटो सहमति जो 2012 तक ही प्रभावी है¸ उसे आगे कैसे बढ़ाया जाय तथा 2012 के आगे भी धरती को गरमाने वाले गैसों के उत्पादन की रोक–थाम के लिए और भी प्रभावकारी रणनीति पर विचार करना तथा यह प्रयास करना कि विश्व के सबसे बडे़ प्रदूषक देश अमेरिका को किस प्रकार इस प्रयास मे शमिल किया जाय। साथ ही इस प्रयास में विकासशील देशों की ज़िम्मेदारी भी तय की जाय। खुशी की बात है कि लगभग क्योटो सहमति पर हस्ताक्षर करने वाले सभी देश इस समझौते को 2012 के आगे भी प्रभावी रखने के लिए सहमत हो गए हैं। अमेरिका भी¸ जो इस संधि का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है¸ इस बात के लिए सहमत हो गया है कि वातावरण में प्रदूषण की रोक–थाम से जुड़ी दूरगामी योजनाओं संबंधी बात–चीत में शामिल होगा। शर्त यह है कि वह उन्हें मानने या न मानने के लिए बाध्य न हो। चलिए¸ भागते भूत की लंगोटी ही भली!अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे ये सरकारी तथा राज नैतिक प्रयास निश्चय ही दूरगामी प्रभाव डालेंगे¸ लेकिन मेरा मानना है कि धरती को गरमाने से बचाने का प्रयास तो महायज्ञ है और इसमें सभी का योगदान आवश्यक है। जब तक इस धरती का बच्चा–बच्चा इसके प्रति सजग नहीं होगा और व्यक्तिगत रूप से इस प्रयास में सहभागी नहीं होगा¸ धरती को इस महाविनाश से कोई नहीं बचा सकता। हमें समय रहते चेतना ही पड़ेगा वरना भस्मासुर की तरह विज्ञानरूपी वरदान के पीछे छिपे प्रदूषणरूपी इस हाथ को अपने सर पर रख कर नाचते हुए अपने विनाश का कारण हम स्वयं ही बन जाएंगे।
[लेख समाप्त]
[आप की प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा।]
धन्यवाद.



2008/04/14

गरमाती धरती और लापरवाह हम [भाग -२]

प्रस्तुत है भाग -२
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हमारे पर्वतों तथा ध्रुवीय प्रदेशों पर ज़मी लाखों टन बर्फ़ जब एक साथ पिघलने लगेगी तो और क्या अपेक्षा की जा सकती है। यह पिघलती बर्फ़ हमारे सागरों और महासागरों का जल–स्तर कई–कई मीटर तक ऊंचा कर सकती है जो फिर नदियों एवं अन्य जलाशयों को भी प्रभावित करेगा ही। परिणाम– चारों तरफ़ बाढ़ ही बाढ़। यह बाढ़ हमारे अधिकांश मैदानी भागों को लील जाएगी। फिर न हम बचेंगे और न ही अन्य जीव–जंतु। खैर यह तो बाद में होगा। बढ़ता ताप अभी भी अपनी रंगत छोटे–बड़े रूप में दिखा ही रहा है। आइए¸ ज़्यादा नहीं¸ बस पिछले सालों के समय–अंतरालहाल में घटी कुछ घटनाओं पर ही नज़र डाली जाए। ये घटनाएं मात्र कपोल–कल्पना नहीं हैं बल्कि विभिन्न वैज्ञानिक तथा पर्यावरण संस्थाओं द्वारा किए गए अध्ययन का निचोड़ हैं। इन पर दृष्टिपात करने के बाद आप को समझ में आ जाएगा कि बढ़ते ताप के फिलहाल क्या–क्या दुष्प्रभाव हो सकते हैं और भविष्य में ये किस प्रकार की भयानक परिस्थितियों की ओर संकेत कर रहे हैं।

*जनवरी 2005 में वल्र्ड वाइल्ड लाइफ़ फंड के एक अध्ययन के अनुसार उत्तर ध्रुवीय क्षेत्र के बर्फ़–अक्षादित क्षेत्रफल में प्रति दशक के हिसाब से 9 .2 प्रतिशत की कमी हो रही है और ऐसा विशेषकर ग्रीष्मकालीन समुद्री बर्फ़ में कमी के कारण हो रहा है। ज़ाहिर है¸ यह वातावरण ताप में वृद्धि का कुपरिणाम है। जीवधारियों पर इसका कुप्रभाव— लगभग 22¸000 पोलर बियर की जनसंख्या के विलुप्त होने का ख़तरा।

*फरवरी 2005 में प्रकाशित ब्रिटिश एंटाiक्र्टक सर्वे की एक रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण ध्रुवीय क्षेत्र अवस्थित लार्सेन बी नामक एंटाiक्र्टक आइस शीट¸ जिसके बारे में अब तक समझा जाता कि यह पत्थर के समान अविचल संरचना है¸ बढ़ती गर्मी के कारण धीरे–धीरे विघटित होना प्रारंभ कर चुकी है। इसका कुपरिणाम इस क्षेत्र के 300 – 400 ग्लैशियरों के आकार में कमी के रूप में परिलक्षित हो रहा है।

*युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के वैज्ञानिकों द्वारा जून 2005 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार साइबेरिया –क्षेत्र के सैटेलाइट द्वारा लिए गए चित्र यह दशार्ते हैं कि इस क्षेत्र में अवस्थित आiक्र्टक झीलों पर जमी लगभग स्थाई बर्फ़ धीरे–धीरे पिघल रही है¸ जिसके परिणाम स्वरूप झीलें विलुप्त होती जा रही हैं। 1973 तक इस क्षेत्र में झीलों की संख्या 10882 थी जो अब घट कर मात्र 9712 रह गई हैं। मात्र बत्तीस साल के अंतराल में ऐसी एक सौ पच्चीस झीलें पूरी तरह विलुप्त हो चुकी हैं।
रूट्गर युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों द्वारा हाल ही में किए गए एक अध्ययन के अनुसार सभी सागरों का जल–स्तर सामान्यरूप से प्रतिवर्ष 2 मी .मी. की से बढ़ रहा है। वर्तमान वृद्धि का यह दर औद्योगिक क्रांति के पहले के वर्षों की तुलना में दुगना है। यदि धरती के सामान्य ताप में वृद्धि के रोक–थाम के समुचित उपाय समय रहते न किए गए तो इस दर के बढ़ते ही जाने की संभावना अधिक है। एक अनुमान के अनुसार इस शताब्दी के अंत तक हमारे समुद्रों का जल–स्तर लगभग एक मीटर तक या उससे भी ऊंचा उठ सकता और तब भविष्य में इसके कुपरिणाम की कल्पना तो की ही जा सकती है।

*मैसाच्युसेट इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के वैज्ञानिकों द्वारा जुलाई 2005 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार पिछले तीन दशकों में ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में उठने वाले चक्रवात धीरे–धीरे काफ़ी प्रबल होते जा रहे हैं। चक्रवात में उठने वाली हवा की गति में कम से कम 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

*जुलाई 2005 में पश्चिमी भारत मे आई बाढ़ इस सदी की भयंकर बाढ़ों में एक थी। महाराष्ट्र के अधिकांश भाग इससे बुरी तरह प्रभावित हुए। मुंबई में ही मात्र 24 घंटे के अंदर 940 मिली मीटर बरसात हुई। इस बाढ़ ने लगभग 1000 लोगों की जान ले ली। धन–संपदा के नुकसान के बारे में तो कहना ही क्या। नवंबर–दिसंबर 2005 तमिल नाडु और आस–पास के क्षेत्र भयानक बरसात तथा बाढ़ के गवाह हैं। मौसम विभाग के अनुसार आने वाला समय कोई शुभ समाचार ले कर नहीं आने वाला है। और भी बारिश एवं आंधी–तूफ़ान के ही संकेत मिल रहे हैं। प्रशांत महासगर के क्षेत्र से उठने वाले तूफ़ानों की संख्या तथा उनकी प्रबलता में भी इस वर्ष काफ़ी वृद्धि हुई है और इन्होंने मिल कर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है।
*1933 के 21 आंधियों तथा 1969 के 12 तूफ़ानों की तुलना में इस वर्ष की 25 आंधियां एवं 12 तूफ़ान अप्रत्याशित कीर्तिमान ही हैं। कैट्रीना और रिटा जैसे तूफ़ानों तथा इनसे हुई तबाही को अमेरिकावासी भला जल्दी भूल सकते हैं क्या?
और तो और धरती के बढ़ते ताप का प्रभाव मानव समाज के स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है। वल्र्ड हेल्थ ऑर्गेनाज़ेशन द्वारा हाल ही में प्रस्तुत एक रिपोर्ट के अनुसार हमारे क्रिया–कलापों के फलस्वरूप वातावरण में हो रहे परिवर्तनों का कुपरिणाम¸ विशेषकर ताप–वृद्धि के कारण¸ प्रतिवर्ष लगभग 50 लाख लोगों को बीमारी के रूप में भुगतना पड़ रहा है और लगभग डेढ़ लाख लोग काल के गाल में समा जा रहे हैं।
*युनिवर्सिटी ऑफ विस्कांसिन–मेडिसन तथा वल्र्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन के वैज्ञानिकों के अनुसार त्रासदी यह है कि इस धरती को गरमाने में पश्चिमी देशों¸ विशेषकर तथाकथित विकसित देशों का मुख्य हाथ है। त्रासदी यह है कि इसका कुपरिणाम प्रशांत तथा हिंद महासागर के तटीय देशों एवं अफ्रीका के सहारा रेगिस्तान के आस–पास के देशों को¸ जहां धरती को गरमाने वाले क्रिया–कलाप न्यूनतम हैं¸ तमाम संक्रामक तथा जीवाणुजनित रोगों जैसे मलेरिया से लेकर दस्त या फिर कुपोषण जैसी स्थितियों के रूप में भुगतना पड़ रहा है। भविष्य में स्थिति के बदतर होने के ही आसार ज़्यादा हैं। कारण¸ उच्च ताप जीवाणुओं को पनपने का बेहतर सुअवसर देते हैं। साथ ही ये देश इतने गरीब हैं कि ऐसी स्थिति से निपटने के लिए न तो इनके पास साधन हैं और न ही सुविधा। करे कोई¸ भरे कोई।
स्थिति भयावह है और इसके लिए काफ़ी हद तक हमारे क्रिया- कलाप ही ज़िम्मेदार हैं.
[जारी है..........]

2008/04/13

गरमाती धरती और लापरवाह हम[भाग -१]

काल करै सो आज कर¸ आज करै सो अब।
पल में परलय होय गी¸ बहुरि करेगा कब।।


जी हां¸ अपने समय के महान समाज–सुधारक कबीर दास ने अपने
इस दोहे में संसार की क्षणभंगुरता के बारे में चेतावनी देते हुए लोगों
को अपना काम समय रहते हुए करने की सलाह दी है। हो सकता है
कि कबीर ने प्रलय का भय दिखा कर उस समय के मानव समाज
में व्याप्त आलस्य को दूर करने का प्रयास किया हो। लेकिन प्रलय की
स्थिति वास्तव में भयावह है।
प्रलय का अर्थ है इस धरती का विनाश अथवा यहां ऐसी विषम स्थितियों
का उत्पन्न होना जिसमें जीवन का फलना–फूलना असंभव हो जाए।
वैसे तो यदि हमें अपने पुराणों तथा मिथकों पर जरा भी विश्वास है
तो जल–प्लावन के रूप में प्रलय कोई नयी बात नहीं है।
ऐसे प्रलय अचानक हुए या फिर प्रकृति इनके बारे में समय–समय पर
चेतावनी देती रही¸ साथ ही इसमें मनुष्य के अपने कर्मों का भी हाथ था
या नहीं —
आज हमारे पास ऐसा कोई साधन नहीं है जो इनके बारे में सही जानकारी
दे सके। लेकिन भविष्य में कोई ऐसा प्रलय आया तो निश्चित रूप से कहा
जा सकता है कि उसमें प्रकृति के साथ–साथ मनुष्य का हाथ अवश्य होगा।
पर्यावरण में हो रहे छोटे–बड़े परिवर्तन कबीर दास की तरह हमें इसकी
चेतावनी भी दे रहे हैं तथा समय रहते सुधरने का संकेत भी।
मनुष्य इस धरती का तथाकथित सबसे बुद्धिमान एवं विचारवान प्राणी है।
इस धरती के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा कर उनका उपयोग केवल अपने
लिए करने का गुर उसे खूब आ गया है।लेकिन अपनी बुद्धि के घमंड में उसने
कबीर की बात न तब सुनी और न ही आज वह प्रकृति रूपी कबीर की
चेतावनी सुनने को तैयार है। वह तो बस तथाकथित प्रगति के रास्ते पर
आंखें मूंदे भागा चला जा रहा है।वह कालीदास की तरह जिस डाल पर बैठा है
उसी को जाने–अनजाने काटने की प्रक्रिया में लगा हुआ है और खुश हो रहा है।
आने वाले प्रलय की चेतावनी धरती के बढ़ते ताप के रूप में प्रकृतिहमें बड़े
मुखर ढंग से दे रही है। इस बढ़ते ताप का दुष्प्रभाव अंत में जल–प्लावन
ही होगा¸यह तय है। [जारी है....]
[अगला भाग कल प्रस्तुत करेंगे ]

2008/04/01

'हमारी नींद और हमारे सपने' [अन्तिम भाग]

'हमारी नींद और हमारे सपने ' आज इस लेख का अन्तिम भाग पोडकास्ट में प्रस्तुत है.

यदि आप प्लेयर पर सुन नहीं पा रहे तो यहाँ क्लिक करके download कर लें.
धन्यवाद।
जल्द ही सम्पूर्ण लेख यहाँ दिया जाएगा ।
प्रतीक्षा करें.