2008/06/04

हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली औरउसके जुझारू सैनिक-7

हमारी अपनी सुरक्षा प्रणाली औरउसके जुझारू सैनिक-७

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जैसा कि पहले ही बताया गया है, टी लिंफोसाइट्स की प्रतिरक्षात्मक क्रियाविधि अलग होती है। प्राथमिक परिमार्जन के पश्चात ये कई रूप धारण करते हैं। इनमें एक रूप होता है, टी हेल्पर कोशिकाओं का। ये कोशिकाएँ तब तक निष्क्रिय रहती हैं जब तक एंटीजेन प्रजेंटिंगकोशिकाएं एंटीजेन-विशेष को पमिार्जित कर इनके सम्मुख पस्तुत नहीं करतीं।एक बार सक्रिय हो जाने के बाद या तो ये बी लिंफोसाइट्स को सक्रिय कर उन्हें विभाजन एवं एंटीबॉडी के उत्पादन के लिए प्रोत्साहित करते हैं ह्यइसकी चर्चा विस्तार से पहले भी की जा चुकी है हृ या फिर टी लिंफोसाइट्स के एक अन्य प्रकार टी साइटोटॉक्सिक कोशिकाओं को सक्रिय कर उनके विभाजन को प्रोत्साहित कर उसी प्रकार के अनगिनत कोशिकाओं के समूह (क्लोन्स) को उत्पादन में सहायक होते हैं। इन सक्रिय टी साइटोटॉक्सिक कोशिकाओं के क्लोन जिन्हें टी किलर सेल्स के नाम से भी जाना जाता है, अब लिंफनोड्स से निकल कर पूरे शरीर में घूमते हैं एवं ऐसी रोगग्रस्त कोशिकाओं की खोज कर तरह-तरह से नष्ट करने में लग जाते हैं जिनके अंदर उस प्रकार के बैक्टीरिया या वाइरस पनप रहे हों जिनसे उत्पादित एंटीजेन को परिमार्जित कर प्रजेंटिंग कोशिकाओं ने इन्हें सक्रिय किया था। रोगग्रस्त कोशिकाओं के संपर्क में आने के बाद ये किलर सेल परफोरिन एवं ग्रैन्युलाइसिन जैसे कोशिका-विष का उत्पादन करते हैं। ये विषैले रसायन इन रोगग्रस्त कोशिकाओं के आवरण में छिद्र बनाते हैं। इन छिद्रों से इन कोशिकाओं में पानी एवं तरह-तरह के ऑयन्स भरने लगते हैं जिसके कारण ये कोशिकाएँ फट कर नष्ट होने लगती हैं। जब रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं को पालने वाली कोशिकाएँ ही नष्ट हो जाती हैं तो भला जीवाणु रहेंगे कहाँ? वे भी समाप्त हो जाते हैं।
पिछले अंक में चलते-चलाते पूरक तंत्र की चर्चा की गई थी। जैसा कि उस समय ही इंगित किया गया था- यह तंत्र नाना प्रकार के छोटे-छोटे प्रोटीन्स से मिल कर बनता है। मुख्य रूप तो नैसर्गिक सुरक्षा प्रणाली की सहायता करता है परंतु आवश्यकता पड़ने पर यह अर्जित सुरक्षा प्रणाली की सहायता हेतु भी सदैव तत्पर रहता है। इस पूरक सेना में शामिल प्रोटीन्स का उत्पादन मुख्य रूप से हमारी लीवर कोशिकाओं में होता है तत्पश्चात ये रक्त एवं अन्य ऊतक-द्रव में ये निष्क्रिय ज़ाइमेजेन एंज़ाइम्स के रूप में भ्रमण करते रहते हैं या फिर अन्य कोशिकाओं से मेंब्रेन रिसेप्टर्स के रूप जुड़ जाते हैं। उत्पादन के पश्चात मनुष्य शरीर में आजीवन इसी प्रकार बने रहते हैं इनमें कोई भी परिवर्तन संभव नहीं है। इनमें से कुछ तो ऐसे होते हैं जो एंटीबॉडी-विशेष के संपर्क में आने पर ही सक्रिय होते है एवं कुछ ऐसे होते हैं जो जीवाणुओं द्वारा उत्पादित एंटीजेंस के संपर्क में आने पर ही सक्रिय हो जाते हैं। इन प्रोटीन्स के कुछ अणुओं का इस प्रकार सक्रिय होना ही पर्याप्त है। इसके बाद तो ये सक्रिय अणु रसायनिक प्रतिक्रियाओं की ऐसी शृंखला प्रारंभ करते हैं कि आनन-फानन में इसी प्रकार के हज़ारो-लाखों प्रोटीन-अणु सक्रिय रूप धारण कर लेते हैं एवं तुरंत एक ज़बरदस्त प्रतिरोधक कार्रवाई का बिगुल बज जाता है। ये सक्रिय प्रोटीन्स या तो जीवाणुओं के आवरण झिल्ली में छेद बनाने लगते हैं जिससे उनके अंदर पानी एवं अन्य तरल घुसने लगते हैं, फलस्वरूप ये जीवाणु फट कर नष्ट होने लगते हैं या फिर ये सक्रिय प्रोटींस जीवणुओं के आवरण से चिपक कर उनके चारों तरफ़ ऐसी तह बनाते हैं जिससे रक्त की भक्षक कोशिकाओं के लिए उनका भक्षण आसान हो जाता है।


[जारी है.......]

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