2008/04/13

गरमाती धरती और लापरवाह हम[भाग -१]

काल करै सो आज कर¸ आज करै सो अब।
पल में परलय होय गी¸ बहुरि करेगा कब।।


जी हां¸ अपने समय के महान समाज–सुधारक कबीर दास ने अपने
इस दोहे में संसार की क्षणभंगुरता के बारे में चेतावनी देते हुए लोगों
को अपना काम समय रहते हुए करने की सलाह दी है। हो सकता है
कि कबीर ने प्रलय का भय दिखा कर उस समय के मानव समाज
में व्याप्त आलस्य को दूर करने का प्रयास किया हो। लेकिन प्रलय की
स्थिति वास्तव में भयावह है।
प्रलय का अर्थ है इस धरती का विनाश अथवा यहां ऐसी विषम स्थितियों
का उत्पन्न होना जिसमें जीवन का फलना–फूलना असंभव हो जाए।
वैसे तो यदि हमें अपने पुराणों तथा मिथकों पर जरा भी विश्वास है
तो जल–प्लावन के रूप में प्रलय कोई नयी बात नहीं है।
ऐसे प्रलय अचानक हुए या फिर प्रकृति इनके बारे में समय–समय पर
चेतावनी देती रही¸ साथ ही इसमें मनुष्य के अपने कर्मों का भी हाथ था
या नहीं —
आज हमारे पास ऐसा कोई साधन नहीं है जो इनके बारे में सही जानकारी
दे सके। लेकिन भविष्य में कोई ऐसा प्रलय आया तो निश्चित रूप से कहा
जा सकता है कि उसमें प्रकृति के साथ–साथ मनुष्य का हाथ अवश्य होगा।
पर्यावरण में हो रहे छोटे–बड़े परिवर्तन कबीर दास की तरह हमें इसकी
चेतावनी भी दे रहे हैं तथा समय रहते सुधरने का संकेत भी।
मनुष्य इस धरती का तथाकथित सबसे बुद्धिमान एवं विचारवान प्राणी है।
इस धरती के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा कर उनका उपयोग केवल अपने
लिए करने का गुर उसे खूब आ गया है।लेकिन अपनी बुद्धि के घमंड में उसने
कबीर की बात न तब सुनी और न ही आज वह प्रकृति रूपी कबीर की
चेतावनी सुनने को तैयार है। वह तो बस तथाकथित प्रगति के रास्ते पर
आंखें मूंदे भागा चला जा रहा है।वह कालीदास की तरह जिस डाल पर बैठा है
उसी को जाने–अनजाने काटने की प्रक्रिया में लगा हुआ है और खुश हो रहा है।
आने वाले प्रलय की चेतावनी धरती के बढ़ते ताप के रूप में प्रकृतिहमें बड़े
मुखर ढंग से दे रही है। इस बढ़ते ताप का दुष्प्रभाव अंत में जल–प्लावन
ही होगा¸यह तय है। [जारी है....]
[अगला भाग कल प्रस्तुत करेंगे ]

No comments: