2008/04/17

मकड़ी के जाले का सदुपयोग[भाग-२ ]

गतांक से आगे.....
अब चूंकि जाल बना कर शिकार फंसाना ही इनका मुख्य व्यवसाय है तो आइए अब देखें कि इस कार्य के लिए इनके पास क्या–क्या हरबा–हथियार हैं और कैसे इनका उपयोग बारीक तंतुओं के उत्पादन एवं लगभग अदृश्य जाल के निर्माण में किया जाता है। इनके उदर में बहुतेरी रेशम उत्पादक ग्रंथियां होती हैं जिनमें तरल फाइबर्स प्रोटीन्स के रूप में रेशम का उत्पादन होता रहता है। सभी प्रजातियों में कुल मिला कर 7 प्रकार की रेशम उत्पादक ग्रंथिया पाई गई हैं परंतु किसी भी एक प्रजाति में सातों प्रकार की गं`थियां नहीं पाई जाती। ये ग्रंथियां मकड़ी के पश्च भाग में गुदा द्वार के नीचे अवस्थित पतली ऊंगलियों के रूप में चार से आठ 'कताई उपांगों' में खुलती हैं। इन कताई उपांगों के मुख पर हजारों नलिकाएं होती हैं। रेशम–ग्रंथियों से तरल प्रोटीन्स के रूप में निकला रेशम जब इन नलिकाओं से गुज़रता है तो पॉलीमराइज़ हो कर ठोस रेशम के तंतु मे परिवर्तित हो जाता है।
इन रेशमी तंतुओं का उपयोग ये मकड़ियां जाल बनाने में बड़ी मितव्यता तथा कलात्मक ढंग से करती हैं। इनके बनाए जाल लगभग वृत्ताकार होते हैं। सबसे पहले तो ये एक अकेले परंतु तुलनात्मक दृष्टि से काफ़ी मोटे तथा मज़बूत रेशमी धागे की कताई करती हैं। इस धागे का सिरा हवा में तब तक खुला छोड़ दिया जाता है जब तक वह किसी पेड़ की टहनी या किसी अन्य ठोस आधार पर चिपक नहीं जाता। इस आधारभूत धागे को सही ढंग से व्यवस्थित करने के बाद त्रिज्जीय तंतुओं की कताई की जाती है जिनके द्वारा आधारभूत तंतुओं को जाल के मध्य स्थित संयोजन क्षेत्र से जोड़ा जाता है। तत्पश्चात इन त्रिज्जीय तंतुओं को न चिपकने वाले तंतुओं द्वारा कुंडलाकार ढंग से अस्थाई रूप से जोड़ा जाता है ताकि ये त्रिज्जीय तंतु अपने स्थान पर बने रह सकें। अंत में इन त्रिज्जीय तंतुओं को पतले परंतु चिपचिपे तंतुओं द्वारा पुन: कुंडलाकार रूप में जोड़ कर पुराने अस्थाई कुंडलाकार तंतुओं को हटा लिया जाता है। इन चिपचिपे कुंडलाकार तंतुओं से बना जाल शिकार फंसाने के काम आता है।
बड़ी मकडियां प्राय: इस जाल के केन्द्र में इस प्रकार बैठती हैं जिससे उनके प्रत्येक पैर न चिपकने वाले अलग–अलग त्रिज्जीय तंतुओं पर सधे रहें। जब भी शिकार फंस कर छटपटाता है¸ जाल के तंतुओं में कंपन होने लगता है जिसे मकड़ी त्रिज्जीय तंतुओं पर अपने पैर होने के कारण आसानी से महसूस कर लेती है। फिर तेजी से दौड़ कर शिकार को विष दंश से मार डालती है अथवा तेजी से उसके चारों ओर रेशमी तंतुओं का जाल बुन कर उसे निiष्क्रय कर देती हैं। छोटे आकार की मकड़ियां जाल के किनारे या उसके आस–पास घात लगा कर बैठी रहती हैं। हर प्रजाति के जाल में कुछ न कुछ अपनी विशिष्टता होती ही है। मकड़ियां अक्सर पुराने जाल के रेशम को खाती भी रहती हैं। क्यों कि निर्माण के एक दिन के अंदर ही इसमें प्रयुक्त रेशमी तंतुओं का चिपचिपापन हवा तथा धूल के कारण समाप्त होने लगता है। पुराने जाल के रेशम को खा कर उसे पचा लिया जाता है और संभवत: नए तंतु के उत्पादन में कच्चे माल की तरह इसका उपयोग फिर से किया जाता है। मितव्ययता का यह एक नायाब नमूना है।
रेशमी तंतुओं के उत्पादन एवं जाल बुनने की कला में निपुणता के कारण काल्पनिक कहानियों तथा मिथकों में इन्हें आदिकाल से ले कर आज तक स्थान मिलता रहा है। 'स्पाइडर मैन' के नाम से कॉमिक्स¸ कार्टून्स तथा फिल्मों की लोकप्रियता से भला कौन नहीं परिचित है। एक पुराने ग्रीक मिथक के अनुसार देवी एथेना की कताई एवं बुनाई कला की कोई तुलना नहीं थीं। लेकिन अरैक्ने नामक गंवारू लड़की ने देवी एथेना को चुनौती देने की ठानी और इस प्रतियोगिता में देवी एथेना को हरा भी दिया¸ जिससे देवी नाराज़ हो गईं। देवी एथेना के गुस्से से डर कर अरैक्ने ने बाद में फांसी लगा ली। जब देवी एथेना का गुस्सा शांत हुआ तो उन्हें बहुत ग्लानि हुई और उन्होंने अरैक्ने के शरीर को मकड़ी में परिवर्तित कर उसे कताई एवं बुनाई की कला को बनाए रखने का वरदान दे दिया। जंतुओं के आधुनिक वर्गीकरण में भी मकड़ियों को फाइलम आर्थोपोडा के 'अरैक्नडा' वर्ग में ही रखा गया है। अरैक्नडा नाम अरैक्ने से ही प्रेरित है।
अब आइए इन किस्से–कहानियों से अलग हो कर इस बात पर गौर किया जाए कि हमारे वैज्ञानिक बंधु इन तंतुओं के व्यापारिक उत्पादन तथा उपयोग के संदर्भ में क्या–क्या जुगत भिड़ा रहे हैं। सबसे पहले तो इन तंतुओं की रासायनिक संरचना तथा मज़बूती के संबंध मे विस्तृत जानकारी लेने की कोशिश की गई। कताई उपांगों से निकालता हुआ तरल रेशम किस प्रकार ठोस तंतु का रूप ले लेता है इसकी सही एवं पूरी जानकारी तो अभी हमें नहीं है¸ फिर भी इतना अवश्य पता है कि इसके निर्माण में भाग लेने वाले फाइबर्स प्रोटीन्स के अणु इस प्रकार व्यवस्थित हो जाते हैं कि तरल रेशम ठोस रेशमी तंतु में परिवर्तित हो जाता है। कितना मज़बूत होता है यह तंतु और किस हद तक लचीला? तो जनाब दिल थाम कर बैठिए! समान मोटाई वाले स्टील के तंतु की तुलना में यह लगभग पांच गुना अधिक मज़बूत होता है तथा लचीला इतना कि तनाव बढ़ने पर इसकी लंबाई 30 से 50 प्रतिशत तक बढ़ सकती है फिर भी यह नहीं टूटता। ये तंतु जल–प्रतिरोधी भी होते हैं एवं –40 डिग्री जैसे कम ताप पर भी नहीं टूटते। वास्तव में इन तंतुओं के निमाण में ऐ डी ऍफ़ -३ ऐ डी ऍफ़ -4जैसे दो प्रकार के प्रोटीन–अणुओं का उपयोग होता है।
आधुनिक संयंत्रों एवं संसाधनों की मदद से इस तंतु की संरचना एवं गुणवत्ता के बारे में और भी विस्तृत जानकारी पाने के उद्देश्य से युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया¸ सांता बारबरा के वैज्ञानिकों ने कुछ वर्ष पूर्व जो अनुसंधान कार्य किए¸ उससे कुछ नए तथ्य सामने आए हैं।
'एटोमिक फोर्स माइक्रोस्कोपी' तथा 'मॉलिक्युलर पुलर' जैसे अत्याधुनिक संयंत्रों की सहायता से प्राप्त तस्वीरों एवं तनाव संबंधी आंकड़ों द्वारा उन्हें यह पता चला कि अन्य भार वाहक प्रोटीन्स की तुलना में इसके गुण कुछ अनूठे हैं। इस तंतु में स्फटिकीय तथा लचीलेपन का गुण एक साथ होता है। ये दोनों गुण इसके एक अणु में भी पाए जाते हैं। स्फटिकीय गुण इसे मज़बूती देता है तो लचीलापन तनाव बढ़ने पर इसे टूटने से बचाता है। जब इस पर भार देने के कारण तनाव बढ़ता है तो इसकी संरचना में प्रयुक्त प्रोटीन्स के अणुओं के बीच के बंध स्वत: खुलते जाते हैं तथा किसी स्प्रिंग की तरह इसकी लंबाई बढ़ती जाती है। भार हटा लेने पर ये बंध स्वत: जुड़ने लगते हैं एवं तंतु पुन: अपने पुराने आकार में वापस आ जाता है।
इन तंतुओं के इन्हीं अनूठे गुणों के कारण वैज्ञानिक इनमें उपयोगिता की अनगिनत संभावनाएं देख रहे हैं। सामान्य उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण के साथ–साथ चिकित्सा विज्ञान से ले कर रक्षा विज्ञान¸ यहां तक कि प्रक्षेपास्त्रों तक में इस तंतु के उपयोग की संभावनाएं देख रहे हैं वैज्ञानिक। इन तंतुओं का उपयोग पैराशूट¸ बुलेटप्रूफ जैकेट तथा सुरक्षा कवच के लिए मजबूत एवं लचीले कपड़े बनाने¸ मज़बूत तथा लचीली रस्सी एवं मछली पकड़ने के जाल बनाने¸ घावों को और भी प्रभावी ढंग से बंद करने तथा बेहतर प्लास्टर बनाने¸ सर्जरी मे काम आने वाले कृत्रिम टेंडन्स तथा लिगामेंटस बनाने में तो किया ही जा सकता है। इसके अतिरिक्त बायोइंजीनियरिंग द्वारा बायोकेमिकली अथवा बायोलाजिकली सक्रिय रासायनिक पदार्थों के साथ मिला कर इनका उपयोग ऐसे नए प्रकार के रेशमी रेशों के उत्पादन में किया जा सकता है जो स्वयं में एक सीमा तक प्रज्ञावान होंगे और तब इन नए रेशों से बने पदार्थों का उपयोग नए प्रकार की एंज़ाइमेटिक प्रतिक्रियाओं¸ रासायनिक उत्प्रेरण अथवा इलेक्टि्रॉनिक सिग्नल्स के संचरण में किया जा सकेगा।[जारी है........]
क्या ऐसा सच में हो सकेगा??
जानने के लिए कल पढ़ें लेख का अगला भाग .....

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