2008/04/17

मकडी के जाल का सदुपयोग [अन्तिम भाग]

कल हम ने जाना था कि इन नए रेशों से बने पदार्थों का उपयोग नए प्रकार की एंज़ाइमेटिक प्रतिक्रियाओं¸ रासायनिक उत्प्रेरण अथवा इलेक्टि्रॉनिक सिग्नल्स के संचरण में किया जा सकेगा।
लेकिन ये सारे सपने तभी साकार हो सकते हैं जब हम इन तंतुओं या फिर इनसे मिलते–जुलते तंतुओं का उत्पादन वृहत पैमाने पर व्यापारिक रूप से कर सकें। इस संदर्भ में सभी संभावनाओं की जांच–पड़ताल की जा रही है। इनमें से कुछ को लागू करना संभव ही नहीं है तो कुछ में हमें फिलहाल आंशिक सफलता ही मिल पाई है¸ परंतु भविष्य में पूर्ण सफलता की संभावना प्रबल है।
इनमें से सबसे अच्छा और आसान तरीका तो इन मकड़ियों को पाल कर उनसे उसी प्रकार रेशम प्राप्त करना था¸ जिस प्रकार हम रेशम के कीडों को शहतूत के पत्ते पर पाल कर उनसे रेशम प्राप्त करते हैं। लेकिन मकड़ियां स्वभावत: शिकारी तथा अपने अधिकार क्षेत्र पर कब्ज़े के प्रति सजग होती हैं। साथ ही ये प्राय: स्वजाति–भक्षक भी होती हैं। अत: इन्हें पालना तथा इनसे रेशम प्राप्त करना संभव नहीं है।
दूसरी संभावना है– इन तंतुओं का कृत्रिम उत्पादन। इस कार्य के लिए हमें चाहिए ऐसी व्यवस्था जहां इस प्रकार के रेशमी तंतुओं के निर्माण में प्रयुक्त प्रोटीन्स या उससे मिलते–जुलते अन्य रासायनिक अणुओं का वृहत स्तर पर कृत्रिम रूप से उत्पादन किया जा सके तथा ऐसी कताई मिले जहां इन अणुओं को संयोजित कर मकड़ियों के रेशमी तंतुओ के समान गुणवत्ता वाले तंतुओं का उत्पादन किया जा सके। इस दिशा में काफ़ी समय से किए जा रहे प्रयासों का फल आंशिक रूप से ही सही¸ अब वैज्ञानिकों को मिलने लगा है। इसका मुख्य श्रेय जेनेटिक इंजीनियरिंग तथा बायोटेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में हो रहे त्वरित विकास को दिया जाना चाहिए।
मकड़ियों में रेशम के उत्पादन में प्रयुक्त प्रोटीन्स के अणुओं के संश्लेषण करने वाले जीन्स की पहचान कर उसे जेनेटिक इंजीनियरिंग जैसी तकनीक की मदद से अन्य जैव कोशिकाओं या जीवों में स्थानांतरित कर क्रित्रम रूप से ऐसे प्रोटीन्स के संश्लेषण में आंशिक रूप से सफलता मिली है। यह विधा इतनी आसान नहीं है। कारण¸ ऐसे जीन्स काफ़ी जटिल संरचना वाले हैं जिनमें एक ही प्रकार के नाइट्रोजन बेसेज़ की श्रृंखला बार–बार दुहराई गई है तथा ये जीन्स प्रोटीन संश्लेषण में हमारी कोशिकाओं से भिन्न प्रकार के कोडॉन तंत्र का उपयोग करते हैं।
फिलहाल हाल के कुछ प्रयोगों में इन जीन्स के कुछ भाग को इiश्रशिया कोलाई जैसे बैक्टीरिया¸ कुछ स्तनधारी जीवों तथा कीटों की कोशिकाओं में स्थानांतरित कर ऐसे प्रोटीन्स के संश्लेषण में सफलता हाथ लगी है। परंतु ऐसे प्रोटीन्स गुणवत्ता में प्राकृतिक प्रोटीन्स की बराबरी नहीं कर सकते तथा इनका उत्पादन बहुत थोड़ी मात्रा में हो रहा है। इन प्रोटीन्स को तंतु के रूप में परिवर्तित करना एक अलग चुनौती है। प्रयोगशाला में इस प्रकार संश्लेषित प्रोटीन्स के अणुओं द्वारा सिलिकॉन के सूक्ष्म कताई यंत्रो द्वारा जिस प्रकार के तंतुओं का निर्माण हो पाया है¸ वे प्रकृति रूप से उत्पादित 2 .5 मिलीमीटर– 4 मिलीमीटर व्यास वाले प्राकृतिक रेशम के तंतुओं की तुलना में काफ़ी मोटे— लगभग 10 से 60 मिलीमीटर व्यास वाले हैं।
इस संदर्भ में इज़राइल के हेब्यु युनिवर्सिटी¸ म्युनिक युनिवर्सिटी तथा ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के कुछ वैज्ञानिकों के दावे का उल्लेख करना प्रासंगिक भी है एवं उत्साहवर्धक भी। 'करेंट बायोलॉजी' के 23 नवंबर 2004 के अंक में प्रकाशित एक लेख में वैज्ञानिकों की इस टीम ने दावा किया है कि जेनेटिक इंजीनियरिंग की जटिल तकनीकि का उपयोग कर 'फाल आर्मी वर्म' नामक कीट के कैटरपिलर लार्वा से प्राप्त कोशिकाओं के लैब कल्चर में न केवल इच्छित प्रोटीन्स के अणुओं का संश्लेषण करने में सफलता पाई गई है¸ बल्कि इन कोशिकाओं में इनसे रेशमी तंतुओं के निर्माण में भी कुछ हद तक सफलता प्राप्त कर ली गई है।
सबसे पहले तो इन लोगों ने 'गाडेर्न स्पाइडर' के जीन्स के उन अंशों को अलग किया जो मकड़ी के रेशमी तंतु के उत्पादन में प्रयुक्त प्रोटीन के अणुओं – डी ऍफ़-३ तथा ऐ डीऍफ़ -4के संश्लेषण के लिए आवश्यक हैं। फिर इन्हें जेनेटिक इंजीनियरिंग की तकनीक द्वारा कीटों को संक्रमित करने वाले 'बैकुलोवाइरस' में स्थानांतरित किया गया। तत्पश्चात इन ट्रांसजेनिक वाइरसेज़ को 'फाल आर्मी वर्म' नामक कीट के कैटरपिलर से प्राप्त कोशिकाओं के लैब कल्चर में स्थानांतरित कर वहां प्रवर्धन के लिए छोड़ दिया गया। चूंकि मकड़ियां एवं कीट दोनों ही एक ही फाइलम 'आर्थोपोडा' से संबद्ध हैं इसलिए दोनों के जीनोम में काफ़ी–कुछ समानता होती है। इस कारण इन लोगों ने सोचा कि ये जीन्स इस कीट की कोशिकाओं द्वारा आसानी से ग्रहण कर लिए जाएंगे और संभवत: इच्छित गुणवत्ता वाले दोनों प्रकार के प्रोटीन्स के अणुओं का संश्लेषण इन कोशिकाओं में हो पाएगा। और वास्तव में न केवल ऐसा हुआ बल्कि इन कोशिकाओं में इनसे रेशमी तंतुओं का निर्माण भी होने लगा। बस थोड़ा सा अंतर यह हुआ कि इन कोशिकाओं में निर्मित तंतुओं मे केवल ऐ डी ऍफ़ -४ ही उपयोग हुआ¸ ऐ डी ऍफ़ -३ घुलनशील अवस्था में कोशिका द्रव में ही रह गया। कुछ भी हो¸ इस प्रकार निर्मित तंतु की मोटाई लगभग प्राकृतिक तंतु के समान ही है और कुछ गुणों में ये उनसे बीस भी हैं। इनमें रासायनिक प्रतिरोध क्षमता अधिक है।
इस अनुसंधान के बाद यह संभावना प्रबल हो गई है कि भविष्य मे इस प्रकार के रेशमी तंतुओं का व्यापारिक स्तर पर वृहत रूप में उत्पादन किया जा सकता है। इस अनुसंधानकार्य से जुड़ी 'यिसुम रिसर्च डेवलपमेंट कंपनी' ने तो इसके व्यापारीकरण की दिशा में ध्यान केंद्रित करना प्रारंभ कर दिया है। तो जनाब तैयार हो जाइए 'स्पाइडर मैन' बनने के लिए! भले ही वैसा नहीं जैसा इसी नाम के कॉमिक तथा फिल्मों में दिखाया जाता है।


फिर भी कम से कम इसके रेशम से बने समानों के उपभोक्ता के रूप में तो आप 'स्पाइडर मैन' बन ही सकते हैं।

-डॉ. गुरुदयाल प्रदीप

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