2008/04/24

रक्तदान महादान है [अन्तिम भाग]

गतांक से आगे ........
कुछ समस्याएँ तो इन सब के बाद भी बनी रहीं ओर भी बनी हुई हैं। यथा, आकस्मिक दुर्घटना के कारण अचानक आवश्यकता से अधिक रक्त की हानि होने पर मरीज़ की जान बचाने के लिए तुरंत रक्त की आवश्यकता पड़ती है और वह भी उस ग्रुप की जो उसके लिए उचित हो। यदि समय रहते सही रक्तदाता न मिले तो समस्या गंभीर हो सकती है। सामूहिक दुर्घटना की स्थिति में तो बहुत सारे रक्त की, वह भी अलग-अलग ग्रुप वाले रक्त की आवश्यकात पड़ सकती है। इस समस्या से निपटने के लिए ब्लड बैंक की स्थापना का विचार आया। यह तभी संभव हो पाया जब 1910 में लोगों की समझ में यह बात आई कि रक्त को जमने से रोकने वाले रसायन एंटीकोआगुलेंट को रक्त में मिला कर उसे कम ताप पर रेफ्रिज़िरेटर में कुछ दिनों के लिए रखा जा सकता है। 27 मार्च 1914 में एल्बर्ट हस्टिन नामक बेल्जियन डॉक्टर ने पहली बार दाता के शरीर से पहले से निकाले रक्त में सोडियम साइट्रेट नामक एंटीकोआगुलेंट को मिला कर मरीज़ के शरीर में ट्रांसफ्यूज़ किया। लेकिन पहला ब्लड बैंक 1 जनवरी 1916 में ऑस्वाल्ड होप राबर्ट्सन द्वारा स्थापित किया गया।

इस सबके बावजूद संसार में मरीज़ों की जान बचाने के लिए रक्त का अभाव बना ही रहता है। वैज्ञानिक निरंतर इस प्रयास में लगे रहते हैं कि किस प्रकार इस समस्या से निपटा जाय। साथ ही यह भी प्रयास रहा है कि किस प्रकार लाल रुधिर कणिकाओं पर पाए जाने वाले एंटीजेंस से छुटकारा मिल सके ताकि किसी का रक्त किसी को भी दिया जा सके। १९६० के बाद इस प्रयास में काफी तेजी आई है। डेक्सट्रान जैसे संश्लेषित प्लाज़्मा सब्सटीच्यूट द्वारा रक्त का परिमाण तो बढ़ाया जा सकता है लेकिन शरीर की कोशिकाओं को रक्त पहुँचाने वाले लाल रुधिर काणिकाओं का क्या सब्स्टीच्यूट है? 1970 के दशक में जापान के वैज्ञानिकों ने फ्लूओसॉल-डीए जैसे रसायन का आविष्कार किया जो कोशिकाओं को अस्थायी तौर पर ऑक्सीजन पहुँचाने का काम कर सकते हैं।

1980 के दशक में वैज्ञानिकों को एक ब्लड ग्रुप को दूसरे में परिवर्तित करने में आंशिक सफलता मिली थी। इसी की अगली कड़ी है- युनिवर्सिटी ऑफ कोपेनहेगेन के नेतृत्व में अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों के दल ने एक ऐसी तकनीक़ का विकास किया है जिसके द्वारा किसी भी ग्रुप के आरएच निगेटिव रक्त को, चाहे वह ए ग्रुप का हो या बी का अथवा एबी का, ओ ग्रुप में परिवर्तित किया जा सकता है। यदि आपने यह आलेख ध्यान से पढ़ा है तो आप जानते ही हैं कि ओ ग्रुप का रक्त किसी को भी दिया जा सकता है। यह एक क्रांतिकारी अनुसंधान है।

1 अप्रैल 2007 के नेचर बॉयोटेक्नॉलॉजी के अंक में प्रकाशित आलेख के अनुसार लगभग 2500 बैक्टीरिया एवं फफूंदियो की प्रजातियों के जांच-पड़ताल के बाद इन वैज्ञानिकों को एलिज़ाबेथकिंगिया मेनिंज़ोसेप्टिकम एवं बैक्टीरियोऑएड्स फ्रैज़ाइलिस में पाए जाने वाले सक्षम ग्लाइकोसाइडेज़ एन्ज़ाइम्स की खोज में सफलता मिली है जो लाल रुधिर कणिकाओं की सतह से संलग्न ऑलिगोसैक्राइड्स (एंटीजेन ए अथवा बी) को बड़ी सफ़ाई से काट कर अलग कर सकते हैं और वह भी तटस्थ पीएच पर। इन एन्ज़ाइम्स की क्रियाशीलता केवल ए तथा बी एंटीजन्स तक ही सीमित है। ये आरएच एंटीजेन के विरूद्ध अप्रभावी हैं, फलत: इनके द्वारा केवल आरएच निगेटिव रक्त को ही ओ ग्रुप में बदला जा सकता है। यह सीमित सफलता भी बड़ी महत्वपूर्ण है। इसके द्वारा भी बहुतेरे मरीज़ों की जान बचाई जा सकेगी। हालांकि इस विधा का क्लीनिकल ट्रायल अभी शेष है। आशा है, जल्दी ही इसे भी पूरा कर लिया जाएगा एवं इसका लाभ शीघ्र ही मरीज़ों को मिलने लगेगा।
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धन्यवाद।
डॉ.गुरुदयाल प्रदीप.

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