2008/04/22

रक्तदान महादान है [भाग -१]


रक्तदान महादान है
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रुधिर. . .ख़ून जी हाँ, लाल रंग का यह तरल ऊतक हमारा जीवन-आधार है। हालाँकि हमारे शरीर में इसकी मात्रा मात्र चार से पाँच लीटर ही होती है, फिर भी यह हमारे लिए बहुमूल्य है। इसके बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। जीवन को चलाए रखने में यह कौन-कौन-सी भूमिका अदा करता है, इसकी लिस्ट तो लंबी-चौड़ी है फिर भी इसके कुछ मुख्य कार्य-कलापों पर दृष्टिपात करने पर ही इसके महत्व का पता चल जाता है।
शरीर की लाखों-करोड़ों कोशिकाओं को आक्सीजन तथा पचा-पचाया भोजन पहुँचा कर यह उनके ऊर्जा-स्तर को बनाए रखने से लेकर भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी उठाता है। उन कोशिकाओं से कार्बन-डाई-ऑक्साइड तथा यूरिया जैसे विषैली गैसों एवं रसायनों को निकालने के कार्य में भी यह लगा रहता है। बीमारी पैदा करने वाले कीटाणुओं से तो यह लगातार लड़ता रहता है और उनके विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता बनाए रखने में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त एक अंग में निर्मित रसायनों, यथा हॉमोन्स को शरीर की सभी कोशिकाओं तक पहुँचाने से लेकर शरीर के ताप को एकसार बनाए रखने, आदि तमाम कार्यों में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है।
इसकी संरचना में प्रयुक्त अवयवों के अनुपात में थोड़ा असंतुलन भी हमारे लिए तमाम परेशनियाँ खड़ी कर सकता है। यथा- सोडियम की ज़्यादा मात्रा रक्तचाप को बढ़ा देता है तो पानी की कमी हमें मौत के क़रीब पहुँचा सकती है और ऑयरन की कमी एनिमिक बना सकती है, आदि-आदि. . .। जब इतने से ही इतना कुछ हो सकता है तो ज़रा सोचिए, जब यह पूरा का पूरा हमारे शरीर से निकलने लगे तब क्या होगा? और दुर्भाग्य से हमारे साथ ऐसा होता ही रहता है।छोटी-मोटी चोटें तो हमारी दिनचर्या का हिस्सा है और इनसे निकलने वाले रक्त की कोई परवाह भी नहीं करता। कारण, हमारे शरीर में रक्त-निर्माण की प्रकिया शैने: शैने: सतत रूप से चलती ही रहती है। साथ ही रक्त में एक और गुण होता है और वह यह कि हवा के संपर्क में आते ही यह स्वत: जमने लगता है, जिसके कारण छोटे-मोटे घावों से निकलने वाला रक्त थोड़ी देर में स्वत: रुक जाता है। चिंता का विषय तब होता है जब हमें बड़ी एवं गंभीर चोट लगती है। ऐसी स्थिति में बड़ी रक्त-वाहिनियाँ भी चोटिल हो सकती हैं। इन वाहिनियों से निकलने वाले रक्त का वेग इतना ज़्यादा होता है कि रक्त के स्वत: जमाव की प्रक्रिया को पूरा होने का अवसर ही नहीं मिलता और एक साथ थोड़े ही समय में शरीर से रक्त की इतनी अधिक मात्रा निकल जाती है कि व्यक्ति का जीवन संकट में आ जाता है। यदि समय से उसे चिकित्सा-सुविधा न मिले तो मौत निश्चित है। चिकित्सकों का पहला प्रयास रहता है कि रक्त-प्रवाह को किस प्रकार रोका जाय और फिर यदि शरीर से रक्त की मात्रा आवश्यकता से अधिक निकल गई हो तो बाहर से किस प्रकार रक्त की आपूर्ति की जाए।
बाहर से रक्त की आपूर्ति के संबंध में प्रयास एवं प्रयोग तो सत्रहवीं सदी से ही किए जा रहे थे। इन प्रयोगों में एक जानवर का रक्त दूसरे जानवर को प्रदान करने से ले कर जानवर का रक्त मनुष्य को प्रदान करने के प्रयास शामिल हैं। इनमें से अधिकांश प्रयोग असफल रहे तो कुछ संयोगवश आंशिक रूप से सफल भी रहे। 1885 में लैंड्यस ने अपने प्रयोंगों से यह दर्शाया कि जानवरों का रक्त मनुष्यों के लिए सर्वथा अनुचित है। कारण, मनुष्य के शरीर में जानवर के रक्त में पाए जाने वाली लाल रुधिर कणिकाओं के थक्के बन जाते है एवं ये थक्के रक्त वहिनियों को अवरुद्ध कर देते हैं जिससे मरीज़ मर सकता है। ऐसे प्रयोगों के फलस्वरूप, मनुष्य के लिए मनुष्य का रक्त ही सर्वथा उचित है, यह बात तो चिकित्सकों ने उन्नीसवीं सदी में ही समझ ली थी और एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर से रक्त प्राप्त कर ऐसे मरीज़ के शरीर में रक्त आपूर्ति की विधा भी विकसित कर ली गई थी एवं इसका उपयोग भी किया जा रहा था। लेकिन इसमें भी एक पेंच देखा गया- कभी तो इस प्रकार के रक्तदान के बाद मरीज़ बच जाते थे, तो कभी नहीं।


[जारी है...................]


-आगे क्या हुआ यह जानने के लिए इस लेख का अगला भाग कल पढिये ....

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