2008/04/23

रक्तदान महादान है [भाग -२]

गतांक से आगे -----



1905 में कार्ल लैंडस्टीनर ने अपने प्रयोगों द्वारा यह दर्शाया कि सारे मनुष्यों का रक्त सारे मनुष्यों के लिए उचित नहीं है। ऐसे प्रयासों में भी कभी-कभी मरीज़ के शरीर में दाता के रक्त की रुधिर कणिकाओं के थक्के उसी प्रकार बनते हैं जैसा लैंड्यस ने जानवरों के रक्त के बारे में दर्शाया था। 1909 में लैंडस्टीनर ने अथक प्रयास के बाद यह दर्शाया कि किस प्रकार के मनुष्य का रक्त किसे दिया जा सकता है।
उन्होंने पाया कि हमारी लाल रुधिर कणिकाओं के बाहरी सतह पर विशेष प्रकार के शर्करा ऑलिगोसैक्राइड्स से निर्मित एंटीजेन्स पाए जाते हैं। ये एंटीजन्स दो प्रकार के होते हैं- ए एवं बी। जिन लोगों की रक्तकाणिकाओं पर केवल ए एंटीजेन पाया जाता है उनके रक्त को ए ग्रुप का नाम दिया गया। इसी प्रकार केवल बी एंटीजेन वाले रक्त को बी ग्रुप तथा जिनकी रुधिर कणिकाओं पर दोनों ही प्रकार के एंटीजेन पाए जाते हैं उनके रक्त को एबी ग्रुप एवं जिनकी रक्तकणिकाओं में ये दोनों एंटीजेन्स नहीं पाए जाते उनके रक्त को ओ ग्रुप का नाम दिया गया। सामान्यतया अपने ग्रुप अथवा ओ ग्रुप वाले व्यक्ति से मिलने वाले रक्त से मरीज़ को कोई समस्या नहीं होती, लेकिन जब किसी मरीज़ को किसी अन्य ग्रुप के व्यक्ति (ए,बी या फिर एबी) रक्त दिया जाता है तो मरीज़ के शरीर में दाता के रक्त की लाल रुधिर कणिकाओं के थक्के बनने लगते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि ए का रक्त बी, एबी एवं ओ में से किसी को नहीं दिया जा सकता; बी का रक्त ए, एबी एवं ओ को नहीं दिया जा सकता और एबी का रक्त तो किसी को नहीं दिया जा सकता। परंतु एबी (युनिवर्सल रिसीपिएंट) को किसी भी ग्रुप का रक्त दिया जा सकता है तथा ओ (युनिवर्सल डोनर) किसी को भी रक्त दे सकता है।
ऐसा क्यों होता है? इसे पता लगाने के प्रयास में यह पाया गया कि किसी भी व्यक्ति के रक्त के तरल भाग प्लाज़्मा में एक अन्य रसायन एंटीबॉडी पाया जाता है। यह रसायन उस व्यक्ति की लाल रुधिर काणिकाओं के उलट होता है। ए ग्रुप में बी एंटीबॉडी मिलता है तो बी में ए एवं ओ में दोनों एंटीबॉडीज़ मिलते हैं। परंतु एबी में ऐसे किसी भी एंटीबॉडीज़ का अभाव होता है। एक ही प्रकार के एंटीजेन एवं एंटीबॉडी के बीच होने वाली प्रतिक्रिया के फलस्वरूप रुधिर कणिकाएँ आपस में चिपकने लगती हैं, जिससे इनका थक्का बनने लगता है। यही कारण है कि जब ए का रक्त बी को दिया जाता है मरीज के रक्त में उपस्थित एंटीबॉडी ए दाता के लाल रुधिर कणिकाओं पर पाए जाने एंटीबॉडी ए से प्रतिक्रिया कर उनका थक्का बनाने लगते हैं। यही बात तब भी होती है जब बी का रक्त ए को दिया जाता है। चूँकि ओ में दोनों ही एंटीबॉडीज़ मिलते हैं अत: ऐसे मरीज़ को ए,बी अथवा एबी, किसी का रक्त दिए जाने पर उसमें पाए जाने वाली रुधिर कणिकाओं का थक्का बनना स्वाभाविक है। इसके उलट, एबी में कोई भी एंटीबाडी नहीं होता अत: इसे किसी भी ग्रुप का रक्त दिया जाय थक्का नहीं बनेगा। रक्तदान के पूर्व दाता एवं मरीज़ दोनों के रक्त का ग्रुप पता करने की विधा भी खोज निकाली गई।
कार्ल लैंडस्टीनर की इस खोज ने ब्लड ट्रांसफ्युज़न के फलस्वरूप मरीज़ों को होने वाली परेशानियों एवं इनकी मृत्युदर में भारी कमी ला दी। चिकित्सा जगत के लिए यह खोज इतनी महत्वपूर्ण थी कि 1930 में लैंडस्टीनर को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बाद में आरएच फैक्टर एवं एम तथा एन जैसे एंटीजेन तथा ब्लड ग्रुप की खोज में भी इन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।[जारी है .....]

लेकिन फ़िर भी कुछ समस्याएं बनी रहीं वे क्या थीं और उनका क्या हल निकाला जा सका हम जानेंगे कल के लेख में --

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