2008/04/15

गरमाती धरती और लापरवाह हम [भाग-३]

अन्तिम भाग प्रस्तुत है--:
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अपने लिए अधिक से अधिक सुख–सुविधाओं को जुटा लेने के प्रयास में की जा रही तथाकथित वैज्ञानिक प्रगति तथा औद्योगीकरण की प्रक्रिया ही इसके मूल में है। छोटी–बड़ी औद्योगिक इकाईयों¸ फैक्टरियों तथा लाखों–करणों वाहनों के संचालन में प्रयुक्त होने वाले कार्बन युक्त ईंधन यथा कोयला¸ प्रट्रोल¸ डीज़ल आदि के दहन से उत्पन्न गरमी और उससे भी अधिक इनके अपूर्ण दहन से निकलने वाली काबर्न–डाई–ऑक्साइड तथा मोनोऑक्साइड जैसी गैसें इस धरती के ताप को बढ़ाने में मुख्य भूमिका अदा कर रही हैं। औद्योगीकरण ने शहरी करण को जन्म दिया। औद्योगिक ईकाइयों तथा आवास–विकास हेतु हमें ज़्यादा ज़मीन की ज़रूरत हुई। इसे हमने धरती की हरियाली की कीमत पर पाया। हरियाली कम होती जा रही है और शहर¸ सड़कें तथा फैक्टरियां ज़्यादा। परिणाम¸ वातावरण में अन्य प्रदूषण फैलाने वाले कारकों के अतिरिक्त काबर्न–डाई–ऑक्साइड की बढ़ती जा रही मात्रा। क्यों कि ये पेड़–पौधे ही हैं जो वातावरण से काबर्न–डाई–ऑक्साइड का उपयोग कर मूल–भूत भोजन काबोर्हाइडेट्स का संश्लेषण करते हैं तथा ऑक्सीज़न की मात्रा की वातावरण में वृद्धि करते हैं।एंटाक्टिर्का में जमी बर्फ़ की अंदरूनी परतों में फंसे हवा के बुलबुलों के विश्लेषण से यह बात सामने आई है कि आज वातावरण में काबर्न–डाई–ऑक्साइड की मात्रा पिछले साढ़े छः लाख वर्षों के दौरान किसी भी समय मापी गई अधिकतम काबर्न–डाई–ऑक्साइड की तुलना में 27 प्रतिशत अधिक है। बढ़ती काबर्न–डाई–ऑक्साइड वातावरण में शीशे का काम करती है। शीशा प्रकाश को पार तो होने देता है लेकिन ताप को नहीं। सूर्य की किरणें वातावरण में उपस्थित वायु को पार कर धरती तक तो आ जाती हैं¸ परंतु धरती से टकरा कर इसका अधिकांश हिस्सा ताप में बदल जाता है। यदि वातावरण में काबर्न–डाई–ऑक्साइड की मात्रा अधिक हो तो यह ताप उसे पार कर वातावरण के बाहर नहीं जा सकता है। इसका परिणाम धरती के सामान्य ताप में धीरे धीरे वृद्धि के रूप में सामने आता है और औद्योगिक क्रांति के बाद यही हो रहा है। औद्योगिक एवं व्यक्तिगत ऊर्जा खपत में अग्रणी होने के कारण पश्चिमी देश इस धरती को गरमाने में भी अग्रणी हैं और इनमें अमेरिका का नाम सर्वोपरि है। विकासशील तथा अविकसित देश भी इस कुकर्म में कमो–बेश अपना सहयोग दे ही रहे हैं! ऐसी परिस्थति में भला धरती को गर्म होने से कौन बचा सकता है!ऐसा भी नहीं है कि इसे कोई नहीं समझ रहा है। लेकिन अधिकतर लोग इसे समझते हुए भी नासमझ बने हुए हैं और जो इसे समझ कर इसकी रोक–थाम के उपाय के प्रयास में लगे हुए हुए हैं¸ वे मुठ्ढी भर पर्यावरण–विज्ञानी पूरे मानव समाज की मानसिकता को बदलने में अप्रभावी सिद्ध हो रहे हैं। हालांकि ऐसे जागरूक लोगों के प्रयास पूरी तरह निष्फल भी नहीं हुए हैं। ऐसे ही लोगों की सक्रियता के फलस्वरूप ही विश्व के लगभग 141 देशों ने फरवरी 2005 में जापान के क्योटो शहर में एक ऐसे दस्तावज पर हस्ताक्षर किए जिसमें इस बात पर सहमति बनी कि संसार के लगभग 40 औद्योगिक रूप से विकसित देश 2008 से 2012 के बीच धरती को गरमाने वाली सभी प्रकार की गैसों के उत्पादन में 1990 की तुलना में कम से कम 5 ।2प्रतिशत की कमी लाने का प्रयास करेंगे। इस पर हस्ताक्षर करने वाले हर देश के लिऐ वहां के प्रदूषण–स्तर के अनुपात में ऐसी गैसों के उत्पादन में कमी लाने के लिए अलग–अलग मानक स्थिर किए गए हैं। ध्यान रहे¸ इस धरती को गरमाने वाली गैसों के उत्पादन में इन देशों का हिस्सा लगभग 55 प्रतिशत है।यह सहमति पिछले सात सालों के अथक प्रयास का फल थी। इस सहमति में भारत तथा चीन जैसे विकासशील देशों को छूट दी गई थी। इसी बात को आधार बना कर ऑस्ट्रेलिया तथा विश्व के सबसे बड़े प्रदूषक देश अमेरिका ने इस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के अनुसार यह सहमति उनके देशवासियों के रोज़गार के अवसरों पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगी¸ साथ ही भारत और चीन जैसे विकासशील देशों को छूट देना पक्षपात है। अमेरिका जैसे देश का ऐसा रवैया इस दिशा में सक्रिय तथा प्रयासरत देशों तथा लोगों के लिए काफ़ी हताशापूर्ण है।हस्ताक्षर करना और बात है¸ उसे अमली जामा पहनाना और बात! अधिकांश देशों के पास न तो कोई निश्चित योजना है और न ही सुदृढ़ राज नैतिक इच्छा। अर्थतंत्र सब पर भारी है। उदाहरण के लिए¸ इस सहमति पर सबसे पहले हस्ताक्षर करने वाले में देशों में एक – कनाडा के पास इस ध्येय को पाने के लिए कोई ठोस योजना नहीं है। 1990 की तुलना में प्रदूषण के स्तर में कमी आने के बजाय यहां लगभग 20 प्रतिशत की वृद्धि ही हुई है। जापान जैसा देश भी¸ जहां इस सहमति पर हस्ताक्षर हुए थे¸ इस ध्येय को पाने के रास्ते में आने वाली कानूनी अड़चनों को कैसे दूर करेगा–इस बारे में दुविधा में है। फिर भी इनके प्रयास सराहनीय है। आज नहीं तो कल रास्ता निकल ही आएगा। कहते हैं न– जहां चाह वहां राह।इसी राह पर आगे चलते हुए 28 नवंबर 2005 से 09 दिसंबर 2005 तक कनाडा के मॉन्टि्रयाल शहर में युनाइटेड नेशन्स द्वारा प्रयोजित गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस अंतर–राष्ट्रीय गोष्ठी में 189 देशों के लगभग दस हज़ार प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। यहां मुख्य मुद्दा था– क्योटो सहमति जो 2012 तक ही प्रभावी है¸ उसे आगे कैसे बढ़ाया जाय तथा 2012 के आगे भी धरती को गरमाने वाले गैसों के उत्पादन की रोक–थाम के लिए और भी प्रभावकारी रणनीति पर विचार करना तथा यह प्रयास करना कि विश्व के सबसे बडे़ प्रदूषक देश अमेरिका को किस प्रकार इस प्रयास मे शमिल किया जाय। साथ ही इस प्रयास में विकासशील देशों की ज़िम्मेदारी भी तय की जाय। खुशी की बात है कि लगभग क्योटो सहमति पर हस्ताक्षर करने वाले सभी देश इस समझौते को 2012 के आगे भी प्रभावी रखने के लिए सहमत हो गए हैं। अमेरिका भी¸ जो इस संधि का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है¸ इस बात के लिए सहमत हो गया है कि वातावरण में प्रदूषण की रोक–थाम से जुड़ी दूरगामी योजनाओं संबंधी बात–चीत में शामिल होगा। शर्त यह है कि वह उन्हें मानने या न मानने के लिए बाध्य न हो। चलिए¸ भागते भूत की लंगोटी ही भली!अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे ये सरकारी तथा राज नैतिक प्रयास निश्चय ही दूरगामी प्रभाव डालेंगे¸ लेकिन मेरा मानना है कि धरती को गरमाने से बचाने का प्रयास तो महायज्ञ है और इसमें सभी का योगदान आवश्यक है। जब तक इस धरती का बच्चा–बच्चा इसके प्रति सजग नहीं होगा और व्यक्तिगत रूप से इस प्रयास में सहभागी नहीं होगा¸ धरती को इस महाविनाश से कोई नहीं बचा सकता। हमें समय रहते चेतना ही पड़ेगा वरना भस्मासुर की तरह विज्ञानरूपी वरदान के पीछे छिपे प्रदूषणरूपी इस हाथ को अपने सर पर रख कर नाचते हुए अपने विनाश का कारण हम स्वयं ही बन जाएंगे।
[लेख समाप्त]
[आप की प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा।]
धन्यवाद.



4 comments:

Manas Path said...

भस्मासुर तो हम बन चुके है. अपनी सारी प्राकृतिक जमा पूंजी ऐय्याशी में उड़ाते जा रहे है.

Anonymous said...

हिन्दी में जलवायु परिवर्तन पर ब्लाग पर लेख देखकर बहुत अच्छा लग रहा है. आप ऐसे विषयों पर लिखते रहें. बड़ी कृपा होगी पूरे हिन्दी समाज पर.

Udan Tashtari said...

हिन्दी चिट्ठाकारी का यह नया आयाम है. इस तरह के विषयों पर आलेखों की दरकार है. आपका प्रयास सराहनीय है. साधुवाद.

Alpana Verma said...

Sarahana ke liye,Aap sabhi ko bahut bahut dhnywaad.
Mujhey sir ke hindi mein likhey kuchh lekh mile to maine un se permission le kar yahan prastuti ki hai taki jyada se jyada log in lekhon se fayda utha saken.
jaldi hi sir khud apne blog par likhna shuru karenge.tab tak main un ke likhey gyanvardhak lekhon ko prastut karti rahungi.

abhar sahit,
alpana verma